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अपभ्रंश-साहित्य
जसु अहर हरिय- सोहग्ग- सारु, नं विदुम सेवइ जलहि खारु । जसु दंतपंति सुंदेरु रुंदु, नहु सीओसहं तु वि लहइ कुंडु ॥ १० ॥ अगुलि पल्लव हपसूण,
जसु सरल भुयाउ लयाउ नूण | घण- पीण-तुंग -थण- भार- सत्तु, जसु मज्ज्ञु तत्तणु नं पवत्तु ॥ ११ ॥
( पृष्ठ ४४५)
अर्थात् जिस ( कोशा ) के मुख से पराजित चन्द्रमा अपने आप को रात्रि में सशंकित हुआ दिखाता है । जिसकी आँखों की कान्ति से पराजित अतएव अत्यधिक लज्जित हरिणी ने मानो वनवास प्राप्त कर लिया । जिस के घने घने काले केश ऐसे प्रतीत होते हैं। मानो, मुख कमल पर भौंरे मंडरा रहे हों। जिसकी भृकुटी संसार में एकमात्र वीर काम के धनुष के सौन्दर्य की भी विडम्बना करती है । जिसके अवरों से अपहृत सौन्दर्य वाले विद्रुम मानो क्षार समुद्र में चले गये । ..... जिस के सघन, पीन, और उत्तुंग स्तन भार को वहन करते-करते मध्यभाग मानो क्षीण हो गया ।
इस प्रकार नारी अंग प्रत्यंग वर्णन या नख शिख वर्णन का रूप हमें यहां भी दिखाई देता है । वर्णन में प्राचीन परम्परा का अनुकरण दिखाई देता है । भाषा समस्त और साहित्यिक रूप धारण किये हुए है । छन्दों में रड्डा, पद्धडिया और घत्ता की ही प्रधाता है ।
छक्कम्मोवएस (षट्कर्मोपदेश रत्नमाला)
अमरकीर्ति रचित १४ सन्धियों की अप्रकाशित कृति है । इसकी चार हस्तलिखित प्रतियाँ आमेर शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हैं ( प्र० सं० पृष्ठ १७१-१७४) ।
अमरकीर्ति द्वारा ग्रन्थ के आरम्भ में और अन्त में दिये आत्म परिचय से प्रतीत होता है कि कवि माथुर संघीय आचार्यों की परंपरा में हुआ था । कवि का आश्रयदाता नागर कुलोत्पन्न अम्बाप्रसाद था । कवि ने प्रत्येक सन्धि की पुष्पिका में अम्बाप्रसाद के नाम का उल्लेख किया है और उसी को कृति समर्पित की है ।" कृति की अन्तिम प्रशस्ति में कवि ने मंगल कामना करते हुए अम्बाप्रसाद को
१. प्रो० हीरालाल जैन, सम रिसेंट फाइंड्स आफ अपभ्रंश लिट्रेचर नागपुर यूनिवसिटी जर्नल, दिसं० १९४२, पृ० ८७ ।
२. क. इय छक्कम्मोवएसे महाकइ सिरि अमरकित्ति विरइए, महाकव्वे गुण पाल चच्चिणि गंदण अंव पसायणु मण्णिए छकम्म णिण्णय वण्णणो णान पठमो संधी परिच्छेउ समत्तो ॥१॥