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________________ अपभ्रंश मुक्तक काव्य-२ ३१७ सुना-पान्तर उह न दीसइ भान्ति न बाससि जान्ते। एषा अटमहासिद्धि सिझइ उजूवाट जाअन्ते ॥ . बाम दाहिण दो वाटा छाड़ी शान्ति बुलथेउ संकेलिउ । थाट ण गुमा खड़तड़ि ण होइ आखि बुजिअ वाट जाइउ ॥' (चर्या पद, १५.) निम्नलिखित पद में शान्तिपा रूई को धुनने के रूपक द्वारा शून्यता को प्राप्त करने का आदेश देते हैं-- राग--शबरी तुला धुणि धुणि आंसुरे आँसु । आँसु धुणि घृणि मिरवर सेसु ॥ तुला धुणि घुणि सुणे अहारिउ । पुण लइआ अपणा चटारिउ ॥ बहल बढ़ दुइ मार न दिशा। शान्ति भणइ बालाग न पइसअ॥ काज न कारण ज एहु जुगति । सअ संवेअण बोलथि सान्ति । (चर्यापद, २६.) अर्थात् रूई को धुनते धुनते उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश-रेशे-निकालते चलो फिर भी उसका कारण दृष्टिगत नहीं होता । उसको अंश अंश रूप से विभाजन और विश्लेषण कर देने पर अन्त में कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता अपितु अनुभव होने लगता है कि रूई शून्यता को प्राप्त हो गई। इसी प्रकार चित्त को भली भाँति 'धुनने पर भी उसके कारण का परिज्ञान नहीं होता। उसे समग्र वृत्तियों से रहित और निःस्वभाव कर शून्य तत्व को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। ___ इस प्रकार सिद्धों के विवरण और उनकी कविता के उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि इन्होंने प्रायः अपने ही सिद्धान्तों को दोहों और गानों में अभिव्यक्त किया है। कहीं कहीं अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिये इन सिद्धों ने रूपकों का भी प्रयोग किया है किन्तु इन रूपकों में ऐसे ही पदार्थ चुने गये है जिनका मानव जीवन के १. अनावाटा-टीफाफार ने इस शब्द का अर्थ 'सः सः मार्गे अन्यत्र गतः ऐसा दिया है। हम समझते हैं कि इसका अर्थ अनावृत्त या अनावर्त है। अर्थात् जो ऋजु मार्ग पर चलता है वह फिर इस संसार बन्धन में लौट कर नहीं आता-अमावृत्त हो जाता है। अथवा इस संसार सागर के आवत-भंवर-से छूट जाता है। भेला-देड़ा। सूना पान्तर-शून्य प्रान्तर। उह--चिहन, लक्षण । भान्तिबाससे-भ्रान्ति वासना में।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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