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________________ अपभ्रंश-साहित्य ___ सहज सुख प्राप्त हो जाने पर साधक योग निद्रा में लीन हो जाता है। चेतना वेदना सब नष्ट हो जाती है । अपने पराये का भेद नष्ट हो जाता है। इस स्वसंवेद्यावस्था में सारा संसार स्वप्नवत् प्रतीत होने लगता है। इस ज्ञान निद्रा में त्रिभुवन शून्यमय हो जाता है। आवागमन के बन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। इसी का वर्णन कृष्णपा ने निम्नलिखित पद में किया है राग--पट मंजरी सुण बाह तयता पहारी। मोह भण्डार लइ सअला अहारी ॥ घुमइ ण चेदाइ स पर विभागा। सहज निदाल काहिनला. लांगा ॥ चेअन न वेअन भर निद गेला । सअल मकल करि सुहे सुतेला ॥ स्वपणे मइ हेखिल तिहुदण सुण । घोलिआ अवणागमण-विहुण ॥ इत्यादि (चर्यापद, ३६.) शान्ति पा--यह ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। सिद्धों में यही सबसे अधिक प्रकाण्ड विद्वान् माने गये हैं । यह उडन्तपुरी, विक्रमशिला, सोमपुरी, मालवा और सिंहल में ज्ञानार्जन करते-करते धर्म-प्रचार भी करते फिरते थे । अपनी गम्भीर विद्वत्ता के कारण ही यह "कलि काल सर्वज्ञ" कहे जाते थे। यह गौड़ राज के राजगुरु और विक्रमशिला के प्रधान थे । इनका समय १००० ई० के लगभग माना जाता है।' निम्नलिखित पद में शान्तिपा सहजमार्ग की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि यह मार्ग स्वसंवेदन और स्वानुभूति का मार्ग है। इसका यथार्थ वर्णन संभव नहीं । मायामोह-समुद्र में यही नौका है जिससे पार पहुँच सकते हैं। इस मार्ग में वाम व दक्षिण नामक दोनों पाश्वों का परित्याग कर आँखों देखी राह से और आँखें मुंद कर सीधे चलना पड़ता है। इस प्रकार आगे बढ़ने से तृण कंटक इत्यादि या ऊबड़ खाबड़ स्थानों की अड़चनें किसी प्रकार भी बाधा नहीं पहुँचा सकती। राग--रामक्री सअ संवेअण सरुअ विचारें अलदख लक्ख ण जाइ। जे जे उजवाटे गेला अनावाटा भइला सोइ । माआ मोह समुदारे पन्त न बुझसि थाहा। आगे नाव न भेला दीइ भन्ति न पुच्छसि नाहा ॥ १. हिन्दी काव्य धारा, अवतरणिका, पृ० ५३ ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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