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________________ ३१८ अपभ्रंश-साहित्य साथ संबन्ध है। ऊपर शान्तिपा के रूई धुनने के रूपक का और कण्हपा के विवाह के रूपक का उल्लेख किया जा चुका है। इसी प्रकार नौका का रूपक', हरिण का रूपक, चूहे का रूपक', हाथी, सूर्य, वीणा आदि के रूपक भी सिद्धों के गानों में मिलते हैं । रूपकों के अतिरिक्त अप्रस्तुत विधान के लिए भी कच्छप, कमल, भ्रमर, नक्र, करह आदि मानव जीवन संबद्ध पदार्थों को ही अधिकतर प्रयुक्त किया। ___इन सिद्धों की रचनायें कुछ तो दोहों में मिलती हैं और कुछ भिन्न-भिन्न गेय पदों के रूप में । चर्यापद में संगृहीत सिद्धों के प्रत्येक पद के प्रारम्भ में किसी न किसी राग का निर्देश मिलता है । इन गेय पदों में कहीं कहीं पादाकुलक, अडिल्ला, पज्झटिका, रोला आदि छन्द भी मिल जाते हैं। उपरिनिर्दिष्ट सिद्धों की कविता के उदाहरणों से स्पष्ट है कि सिद्धों की यही विचार धारा नाथ पंथियों द्वारा कुछ परिवर्तित एवं परिष्कृत होकर हिन्दी-साहित्य के संत कवियों तक पहुँची। रहस्य की भावना, बाह्य कर्म कलाप का खण्डन, गुरु की महत्ता, अक्खड़पन आदि की प्रवृत्तियाँ दोनों में समान रूप से मिलती है । कबीर के दोहे भी इसी प्रकार प्रसिद्ध हैं जिस प्रकार सिद्धों के । अपने भावों को संक्षेप से अभिव्यक्त करने का साधन दोहा छन्द से अच्छा और क्या हो सकता है ? इस प्रकार भावधारा और शैली दोनों दृष्टियों से परवर्ती हिन्दी साहित्य इन सिद्धों का ऋणी है । १. का अ णावडि खांटि मण केडुआल। सद्गुरु वअणे धर पतवाल ॥ __इत्यादि, सरह, चर्यापद, ३८ गंगा जउँना मांझे बहइ नाई, इत्यादि डोम्बी, चर्या० १४ सोन भरिती करुणा नावी इत्यादि । कमरिपा, चर्या० ८ २. अप्पण मांसे हरिणा बइरी। खणह ण छाडअ, भूसुक अहेरी॥ इत्यादि भूसुक, चर्या०६ ३. णिशि अंधारी मूसा करअ अचारा । अमिअ-भखअ मूसा करअ अहारा॥ __ इत्यादि, भूसुक, चर्या० २१ ४. तीनिए पाटे लागेलि अणहअ सन घण गाजइ । ता सुनि मार भयंकर विसअ-मंडल सअल भाजइ ॥ मातेल चीअ-गएन्दा धावइ । इत्यादि महीपा, चर्या० १६ ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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