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अपभ्रंश मुक्तक काव्य--२
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शेष नहीं रहता। वह अनन्तसुख या महासुख वाद की अनुभुति से युक्त हो जाता है ।
बोधिचित्त की कल्पना एक शून्यरूप पुरुषाकार देव के रूप में की गई है और शून्य की कल्पना एक नैरात्मा देवी के रूप में। जिस प्रकार पुरुष स्त्री के आलिंगन में सुख प्राप्त करता है उसी प्रकार बोधिचित्त, शून्य या नैरात्मा देवी के आलिंगन से अनन्त सुख प्राप्त करता है इसका ऊपर निर्देश किया जा चुका है। नैरात्मा को ही शक्ति, प्रज्ञा, स्वाभाप्रज्ञा, प्रज्ञा पारमिता, मुद्रा घंटा आदि नामों से पुकारा जाता है। बोधिचित्त को ही वजू और उपाय कहा गया है।
वज्रयानियों द्वारा प्रतिपादित मार्ग का ब्राह्मणों ने विरोध किया ही होगा। इसी कारण वज्रयानियों ने भी हिन्दओं के कर्मकाण्ड का घोर कट्टरता से खंडन किया।
वज्रयान मार्ग में योगी के लिये किसी कर्म का निषेध नहीं, किसी प्रकार का भोजन अभक्ष्य नहीं। मांस, मदिरा, मैथुन आदि पंच मकारों का भी निषेध नहीं किया गया है
"कर्मणा येन वै सत्वाः कल्पकोटि शतान्यपि ।
पच्यन्ते नरके घोरे तेन योगी विमुच्यते ॥ वज्रयानी अन्य साकार देवों की पूजा न कर स्वयं अपनी पूजा को सर्वश्रेष्ठ समझता है । वही सबसे बड़ा देव है। उसके समक्ष शुचि-अशुचि, भक्ष्य-अभक्ष्य, गम्यअगम्य सब भेद नष्ट हो जाते हैं । ___ वज्रयान मार्ग में गुरु के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है । गुरु से ही सच्चे मार्ग और सच्चे ज्ञान की प्राप्ति बताई गयी है। क्रमशः यह वज़यान मार्ग इस सीमा तक पहुँच गया कि
"संभोगार्थ मिदं सर्व धातुकमशेषतः।
निर्मितं वयनाथेन साधकानां हिताय च ॥" इस प्रकार की घोषणा में भी इन्हें कोई संकोच न रहा।
बुद्ध, दुःख-बहुल संसार के दुःखों को दूर करने के लिये घर छोड़ बाहर निकल पड़े थे । अवलोकितेश्वर, दुःखी प्राणियों के दुःख दूर किये बिना स्वयं भी निर्वाण को न पाना चाहते थे। वजयानियों ने महायान की शून्यता एवं करुणा को क्रमशः प्रज्ञा एवं उपाय के नांम दे दिये और दोनों के मिलन को युगनद्ध की दशा बतलाकर प्रत्येक साधक के लिए इसी अवस्था को प्राप्त करना, अन्तिम लक्ष्य बताया। प्रज्ञा और उपाय के भौतिक प्रतीक स्त्री और पुरुष के पारस्परिक मिलन की अन्तिम दशा समरस या महासुख के नाम से कहलाई।' इस दशा की प्राप्ति के लिये महामुद्रा (वजयानीय योग की सहचरी योगिनी) की साधना का विधान होने से उस में अनाचर बढ़ने लगा।
१. परशुराम चतुर्वेदी-उत्तरी भारत की संत परंपरा, भारती भंडार प्रयाग, वि०
सं० २००८॥