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________________ ३०४ अपभ्रंश-साहित्य वज्रयान की ही एक शाखा सहजयान के नाम से प्रसिद्ध हुई। सभी साधक इस प्रकार पतित नहीं समझे जा सकते । वज्रयानियों में सफलता को प्राप्त करने वाले अनेक साधक हुए जो सिद्ध नाम से पुकारे गये। इस साधना के सच्चे स्वरूप को वे सहज के नाम से पुकारते थे। वे सहज के द्वारा सहज सिद्धि या सभी प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति संभव समझते थे। इन सिद्धों का विश्वास था कि साधना में चित्त विक्षुब्ध नहीं होना चाहिए। चित्त विक्षुब्ध होने पर साधना संभव नहीं । सहज सिद्धि के लिए इन साधकों ने वजयान मंत्रयान सम्बन्धी मन्त्र, मण्डल आदि बाह्य साधनाओं की उपेक्षा कर यौगिक एवं मानसिक शक्तियों के विकास पर बल दिया। वज्रयान मार्ग के अनेक प्रतीकों की व्याख्या इन्होंने अपने ढंग से की। वजू शब्द का अभिप्राय उस प्रजा से माना जाने लगा जो बोधि चित्त का सार है और जो शक्ति का सूचक है। इन साधकों का सम रस का अभिप्राय वज्रयानियों से भिन्न था। वज्रयानियों के भिन्न-भिन्न प्रतीकों की इन्होंने अपनी भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न व्याख्या की और भिन्न-भिन्न रूपकों के द्वारा अपने भावों को स्पष्ट किया। यद्यपि वज़यान और सहजयान दोनों का लक्ष्य एक ही थामहासुख या पूर्ण आनन्द की प्राप्ति और समरस की दशा का ही दूसरा नाम सहज था, ' तथापि दोनों यानों में से सहजयान में जीवन के परिष्कार एवं सुधार की कुछ भावना थी। वजयान की तरह सहजयान के आचार्यों ने भी गुरु की आवश्यकता बताई । बाह्य कर्मकाण्ड की अपेक्षा आन्तरिक चित्त शुद्धि पर बल दिया। उस समय प्रचलित ब्राह्मण शैव, जैन व बौद्ध साधना पद्धतियों की कटुता से आलोचना की और सहज साधना का प्रचार किया। चित्त की शुद्धि और चित्त की मुक्ति ही सहज सिद्धि है-निर्वाण है, साधक का अन्तिम लक्ष्य है । सहजयान के अनुसार चित्त शुद्धि से सहजावस्था की प्राप्ति होती है और यही 'सहज' हमारा परम लक्ष्य है । इस सहज को ही बोहि (बोधि), जिणरअण (जिनरत्न), महासुह (महासुख), अणुत्तर (अनुत्तर), जिनपुर, धाम आदि नामों से पुकारा गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सिद्धों ने वज्रयान के प्रतीकों की भिन्न रूप से व्याख्या की । इन के अनुसार “प्रज्ञा", चन्द्र नाड़ी इडा है और "उपाय", सूर्य नाड़ी पिंगला। दोनों के संयोग के निकट ही महासुख का उत्पत्ति स्थान है जिसे पवन के नियमन से प्राप्त किया जा सकता है। इस स्थान की कल्पना सिद्धों ने मेरु दण्ड या सुषुम्ना के सिरे के रूप में की। इसी को पर्वत का सर्वोच्च शिखर, महामुद्रा या मूल शक्ति नैरात्मा का निवासस्थान माना। इस साधना की कारण भूता काया को पवित्र तीर्थस्थान माना गया। जो ब्रह्माण्ड में है वह पिण्ड में भी वर्तमान है फिर इधर उधर भटकना क्यों ? सिद्धों की कविता के मुख्य विषय थे--रहस्यमयी भाषा में सिद्धान्त-प्रतिपादन, सहज १. डा० रमेशचन्द मजुमदार, हिस्ट्री आफ बेंगाल, भाग १, प० ४२०-४२१ । २. उत्तरी भारत को संत परंपरा, पृ० ४१ ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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