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________________ अपभ्रंश मुक्तक काव्य--१ २९१ के दूध से और धतूरे के फूल से की है। इसी प्रकार घर की एकता का दृष्टान्त मार्जनी, झाड़ से दिया है । वस्तुतः कृतिकार का लक्ष्य किन्हीं आध्यात्मिक और दार्शनिक तत्वों का विवेचन न था। श्रावक श्राविकाओं और गहस्थों को धर्मोपदेश द्वारा सदाचार मार्ग की ओर प्रवत्त करना और देवगृहों-चैत्य गृहों के जीवन को आदर्श बनाना ही इसका उद्देश्य था। कालस्वरूप कुलक के उदाहरण स्वरूप कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं "दुख होइ गो-यक्किहि धवलउ पर पेज्जंतइ मंतर बहलउ । एक्कु सरीरि सुक्ख संपाडइ अवर पियउ पुणु मंसु वि साडइ" ॥१०॥ "कुगुरु सुगुरु सम दीसहि बाहिरि परि जो कुगुरु सु अंतरु बाहिरि ! जो तसु अंतर करइ वियक्खणु सो परमप्पउ लहइ सुलवखणु" ॥११॥ अर्थात् गौ का दूध और आक का दूध दोनों श्वेत वर्ण होते हैं किन्तु उनके पान करने में परिणाम भिन्न-भिन्न होते हैं, एक शरीर में सुख उत्पन्न करता है और दूसरा शरीर को जला देता है । इसी प्रकार सुगुरु और कुगुरु बाहर से एक समान दीखते हैं किन्तु कुगुरु आभ्यन्तर व्याधि रूप है । जो बुद्धिमान् उन दोनों में भेद करता है वह परम पद को प्राप्त करता है। घर में ऐक्य का सुन्दर उदाहरण निम्नलिखित पद्य में मिलता है "कज्जउ करइ बुहारी बद्धी सोहइ गेहु करेइ समिद्धी। जइ पुण सा वि जुयं जुय किज्जइ ता किं कज्ज तीए साहिज्जइ ?" ॥२७॥ भावना संधि प्रकरण' यह जयदेव मुनि कृत्त छह कडवकों की एक छोटी सी रचना है । प्रत्येक कडवक में १० पद्य हैं। आरम्भिक और अन्तिम कडवक में मंगलाचरण और स्तुति सम्बन्धी एक-एक पद्य अधिक है। कृति के अन्तिम पद्य में रचयिता का और उसके गुरु शिवदेव सूरि का नाम मिलता है ।२ रचयिता के विषय में कुछ ज्ञात नहीं। इसका काल और स्थान १. एनल्स आफ भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टिट्यूट पूना, भाग ११, सन् १९३० १० १-३१ पर एम्० सी० मोदी द्वारा संपापित २. णिम्मल गुण भूरिहिं सिव दिव सूरिहिं, पढमसीसु जयदेव मुणि । किय भावण संधी सिभाव सुगंधी, निसुणवि अन्न वि घरउ मणि ॥६२
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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