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________________ २८६ अपभ्रंश-साहित्य "दसण रहिय कुपत्ति जइ दिण्णइ ताह कुभोउ । खारघडई अह णिवडियउ णीरु वि खारउ होइ" ॥८॥ लेखक ने दया को धर्म का प्रधान रूप माना है। "दय जि मूलु धम्मंघिवहु सो उप्पाडिउ जेण । दलफल कुसुमहं कवण कह आमिसु भक्खिउ तेण" ॥४०॥ अर्थात् दया ही धर्म वृक्ष का मूल है । उसे जिसने उखाड़ फेंका, पत्र फल, कुसुम की कौन कथा मानो उसने मांस भक्षण कर लिया। गृहस्थों के लिए द्यूतहानि की ओर निर्देश करता हुआ लेखक कहता है । "जूएं धणहु ण हाणि पर वयहं मि होइ विणासु । लग्गउ कठ्ठ ण डहइ पर इयरहं डहइ हुयासु" ॥३८॥ अर्थात् जूए से धन ही की हानि नहीं होती व्रतों का विनाश भी होता है। काठ में लगी आग उसी काठ को नहीं अपितु अन्यों को भी जला देती है। .. मानव जन्म की दुर्लभता का वर्णन करता हुआ लेखक उसके सदुपयोग का आदेश देता है "मणुयत्तणु दुल्लहु लहिवि भोयहं पेरिउ जेण । इंधण कज्जे कप्पयर मूलहो खंडिउ तेण" ॥२१९॥ अर्थात् दुर्लभ मनुजत्व को भी प्राप्त कर जिसने उसे भोगों में लिप्त किया उसने मानो इंधन के लिए कल्पवृक्ष को समूल उखाड़ डाला। कवि जिन-भक्त है अतएव जिन-भक्ति भावना का सुन्दरता से वर्णन किया है "जो वयभायणु सो जि तणु कि किज्जइ इयरेण । तं सिरु जं जिण मुणि गवइ रेहइ भत्तिभरेण ॥११६॥ दाणच्चण विहि जे करहिं ते जि सलक्खण हत्थ । जे जिण तित्थहं अणुसरहिं पाय वि ते जि पसत्य ॥११७॥ जे सुणंति धम्मक्खरई ते हवं मण्णमि कण्ण । जे जोहिं जिणवरह मुहु ते पर लोययिण धण्ण ॥११८॥ अर्थात् शरीर वही समझो जो व्रतों का भाजन हो अन्य शरीर से क्या लाभ ? वही सिर सिर है जो भक्तिभार से सुशोभित हो जिनमुनि के आगे नमे । हाथ वही प्रशस्त हैं जो दानार्चन विधि विधान करते हैं। वही पैर प्रशस्त हैं जो जिन तीर्थों का अनुसरण करते हैं । जो धर्म के अक्षरों का श्रवण करते हैं मैं उन्हें ही कान समझता हूँ और जो जिनवर के मुख का दर्शन करती हैं वही आँखें उत्कृष्ट और धन्य हैं। लेखक के इन वचनों की रसखान के निम्नलिखित सवैये से तुलना कीजिये-- "बैन वही उन को गुन गाइ, औ कान वही उन बैन सों सानी । हाय वही उन गात सरै, अरु पाइ वही जु वही अनुजानी। देवसेन के दोहों में जाति भेद की भावना नहीं दिखाई देती। ब्राह्मण हो या शूद्र जो धर्माचरण करता है वही श्रावक है।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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