________________
अपभ्रंश मुक्तक काव्य-१
२८५ अर्थात् बहुत कहने से क्या ? जो अपने को प्रतिकूल लगे उसे दूसरों के लिये भी न करो। संस्कृत के पद "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्” का ही भाव लेखक ने अभिव्यक्त किया है। लेखक ने विषयों के त्याग का आदेश दिया है
"रूवहु उप्परि रइ म करि णयण णिवारहि जंत ।
रूवासत्त पयंगडा पेक्खहि दीवि पडत" ॥१२६॥ रूप पर रति मत कर । उधर जाते हुए नयनों को रोक। रूप में आसक्त पतंग को दीपक पर पड़ते हुए देख। किन्तु साथ ही भोगों को मर्यादा में रखने का भी संकेत करता है
7 "भोगहं करहि पमाणु जिय इंदिय म करि सदप्प । - हुंति ण भल्ला पोसिया दुद्धे काला सप्प" ॥६५॥
हे जीव ! भोगों का भी प्रमाण रख। इन्द्रियों को अभिमानी न कर । दूध से काले साँप को पोसना अच्छा नहीं होता। माया का परित्याग करना चाहिये--
“माया मिल्लही थोडिय वि दूसइ चरिउ विसुद्ध ।
कंजिय बिंदुई वित्तुडइ सुद्ध वि गुलियउ दुद्ध" ॥१३३॥ थोड़ा सा भी दोष महान् पुण्य का नाश कर देता है
"महु आसायउ थोडउ वि णासइ पुण्णु बहुत्तु ।
वइसाणरहं तिडिक्कडउ काणणु डहइ महंतु" ॥२३॥ पाप से सुख प्राप्ति असंभव है
"सुहियउ हुवउ ण को वि इह रे जिय णरु पाबेण ।
कद्दमि ताडिउ उठिठयउ गिदउ दिछउ केण" ॥१५३।। लेखक पाप पुण्य में समता का उपदेश देता है
"पुण्णु पाउ जसु मणि ण समु तसु दुत्तर भवसिंधु ।
कणय लोह णियलई जियहु कि ण कुहि पयबंधु" ॥२१॥ जिसके मन में पुण्य और पाप समान नहीं है उसके लिये भवसिंधु दुस्तर है। क्या कनक या लोहे की निगड़ (श्रृंखला) प्राणी का पादबंधन नहीं करती?
सैकड़ों शास्त्रों के ज्ञान से युक्त ज्ञानी अवश्यम्भावी रूप से धार्मिक नहीं हो सकता। सैकड़ों सूर्यों के उदय हो जाने पर भी उल्लू अंधा ही रहता है
"सत्थ सएण वियाणियहं धम्मु न चढइ मणे वि। V दिणयर सउ जइ उग्गमइ घूयडु अंघउ तो वि" ॥१०५॥ लेखक दान की महत्ता का प्रतिपादन करता हुआ सत्पात्र में दान का आदेश करता है
"जं जिय दिज्जइ इत्युभवि तं लभइ परलोइ।
मूलें सिंचइ तरुवरहं फल डालहं पुणु होइ" ॥१५॥ कुपात्र को दिया दान व्यर्थ होता है । खारे घड़े में डाला जल खारा ही हो जाता है--