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अपभ्रंश-साहित्य
और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं तो अन्य कौन स्थिर है ?
यह संसार सचमुच विडंबना है जिसमें जरा यौवन, जीवन मरण, धन दारिद्रय जैसे विरोधी तत्त्व हैं ( पद्य २५ ) । कवि कहता है बंधु बांधव नश्वर हैं फिर उनके लिए पाप कर कर के धन संचय कैसा ?
"जसु कारणि धणु संचई, पाव करेवि गहीरु ।
तं पिछहु सुप्पउ भणई, दिणि दिणि गलइ सरीरु" ॥३३॥ कवि घर गृहस्थी की शोभा निर्मल धर्म से ही समझता है (पद्य ७५ ) और धन यौवन से विरक्त हो, घर छोड़, धर्म में दीक्षा लेने का आदेश देता है । वह घर परिजनादि के लिए भी धर्मत्याग सहन नहीं करता और धर्माचरण को ही सबसे प्रमुख वस्तु समझता है--
"रे जीय सुणि सुप्पउ भणई, घणु जोवणहं म मज्जि । परिहरि घर, लइ दिखडी, मणु णिव्वाणहं सज्जि " ॥५०॥ "जीव म धम्मह हाणि करि, घर-परियण - कज्जेण ।
कि . न पिखहि सुप्पउ भण्इं, जणु खज्जंतु मरेण" ॥५१॥ जिसके पीछे प्रिय गृह-गृहिणी रूपी पिशाच लग गया है अर्थात् जो संसार में आसक्त है वह निरंजन का कैसे ध्यान कर सकता है ?
"जसु लग्गह सुप्पउ भणइं, पिय-घर-घरणि-पिसाउ।
सो कि कहिउ समायरइ, मित्त णिरंजण भाउ" ॥६॥ सुप्रभाचार्य दान की महत्ता स्वीकार करते हैं और दान का उपदेश देते हैं ( पद्य १९, २२ ) । जो दीनों को धन देता है और जिसका मन धर्म में लीन है विधि भी उसकी दासता स्वीकार करता है
"धणु दीणहं गुण सज्जणहं, मणु धम्महं जो देइ ।
तहं पुरिसैं सुप्पउ भणई, विह दासतु करेइं" ॥३८॥ दाता समृद्ध होता और संचय करने वाला क्षीण होता है
"रे मुढा सुप्पउ भणई, धणु दितह थिरु होय ।
जइ कल सचै ससि गयणि, पुणु खिज्जंतो जोइ" ॥५३॥ कवि ने अदाता की निन्दा के साथ साथ याचक की भी निन्दा की है ( पद्य ३६ )। पुण्य-संचय, परोपकार; इन्द्रिय-निग्रह और मन को वश में करने का उपदेश दिया है। जिस मनुष्य का मन विषयों के वश में है वह जीता हुआ भी मृतक के समान है । जिसने मन को मार लिया वही मनुष्य जीवित समझो।
"जसु मणु जीवई विसयसु, सो णरु मुवो भणिज्ज ।
जसु पुण सुप्पय मणु मरई, सो णरु जीउ भणिज्ज" ॥६०॥ कवि मानव देह की दुर्लभता की ओर संकेत करता हुआ धर्माचरण की ओर निर्देश करता है (पद्य ३९) । वह धार्मिक संकीर्णता से रहित है। देव-पूजा में देव की अपेक्षा भाव को प्रधान समझता है