SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश मुक्तक काव्य-१ २७१ घटनाओं और दृश्यों से चुन कर लिया गया है। उदाहरण के लिए : "राएँ रंगिए हियवडए देउ ण दीसइ संतु। दप्पणि मइलए बिबु जिम एहुउ जाणि णिभंतु ॥"१.१२० । अर्थात् राग रंजित हृदय में शांत देव इसी प्रकार नहीं दीखता जिस प्रकार मलिन दर्पण में प्रतिबिम्ब । यह निश्चय जानो। "भल्लाह वि णासंति गुण जहँ संसग्ग खलेहि । . बइसाणरु लोहहँ मिलिउ तें पिट्टियइ घणेहि ॥"२.११०॥ अर्थात् भद्र जनों के गुणों का भी खलों के संसर्ग से नाश हो जाता है। वैश्वानर अग्नि मलिन लोहे के संसर्ग से हथौड़ों से पीटा जाता है। ___ "जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि। एक्कहिं केम समंति वढ बे खंडा पडियारि" ॥१.१२१॥ ___ अर्थात् जिसके हृदय में हरिणाक्षी सुन्दरी वास करती है वह ब्रह्म विचार कैसे करे ? एक ही म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती हैं ? __ निम्नलिखित दोहे में श्लेषालंकार का प्रयोग मिलता है। - "तलि अहिरणि वरि घण-वडणु संडस्सय-लंचोडु। लोहहँ लग्गिवि हुयवहाँ पिक्खु पडतउ तोडु" ॥२.११४॥ अर्थात् देखो लोहे का सम्बन्ध पाकर अग्नि नीचे रखे हुए अहरन (निहाई) के ऊपर घन की चोट, संडासी से खींचना, चोट लगने से टूटना आदि दुःखों को सहती है। अर्थात् लोहे की संगति से लोक-प्रसिद्ध देवतुल्य अग्नि दुःख भोगती है इसी तरह लोह अर्थात् लोभ के कारण परमात्मतत्व की भावना से रहित मिथ्या दृष्टि वाला जीव घनगात सदृश नरकादि दुःखों को भोगता है। कवि की भाषा में वाग्धाराओं और लोकोक्तियों का प्रयोग मिलता है- "बहुएँ सलिल विरोलियइँ कर चोप्पडउ ण होइ।" (२.७४) बार बार पानी मथने से भी हाथ चिकने चुपड़े नहीं होते। "भुल्लउ जीव म वाहि तुहं अप्पण खंधि कुहाडि" (२.१३८) हे जीव ! भूम से अपने कन्धे पर कुल्हाड़ी मत मार। "मूल विणट्ठइ तरुवरहँ अवसइँ सुक्कहिँ पण्ण।" (२.१४०) अर्थात् सुन्दर वृक्ष के भी मूल नष्ट हो जाने पर उसके पत्ते अवश्य सूख जायंगे । "मरगउ में परियाणियउ तहुँ कच्चे कउ गण्णु"। (२.७८) इत्यादि भाषा में विभक्ति सूचक प्रत्यय के स्थान पर परसर्ग का प्रयोग भी कहीं कहीं दिखाई देता है : ___ "सिद्धिहि केरा पंथडा (२.६९)-सिद्धि का मार्ग । ग्रन्थ की भाषा में अनेक ऐसे शब्द-रूपों का प्रयोग मिलता है जो हिन्दी शब्दों के रूपा
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy