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अपभ्रंश-साहित्य
ग्रंथ में अनेक काव्यमय और अलंकृत स्थल मिलते हैं । उदाहरणार्थं निम्नलिखित राजगृह का वर्णन देखिये
धता - तहि
नामें
विरिचि
पट्टणु रायगिहु, चउराण पय कम साहाहि अलंकरिउ, णं बहु पऊह पुरिउ वि सायर, कुवलय मंडणो विण मिसायरु + मंगल वह गुरु कई परियस्थिउ, णं गयणंगणु धणु वित्थरिय बहु वाणिउं मंदाइणि पट्टु व, रंगालउ णं वहु खण णिलउ जईसहो चित्तु व, विउडु पवेसु
णवरस मट्टु व महासइ चित्तु व ॥
समरालउ 1
वण्णालऊ १.१०
कवि विवाहानन्तर वरवधू मिलन का वर्णन करता है
सोहर कोइल झुणि महुरसमए, सोहइ मेइणि पहु लद्ध गए + सोह मणि कणयालंकरिया, सोहइ सासय सिरि सिद्ध जुया ।
सोहइ संपइ सम्माण जणे, सोहइ जयलछी सुडु रणें ।
सोहइ साहा जलहरस वर्णे, सोहर वाया सुपुरिस वय । जह सोहइ एयह वहु कलिया, तह सोहइ कण्णा वर मिलिया । कि वहुणा वाया उन्भसए, कीरइ विवाह सोमंजसए । ७.५ कवि ने भाषा में अनुरणनात्मक शब्दों का भी प्रयोग किया है । जैसेघुम घुम धुम्मिय मद्दल सद्द, दुम् दुमियई वर तंदुहि गर्दे । दों दों दो वर तिविली तालह, शं शं शं शं किर कंसार्लाह । रण शण रण झण घघर सदें, में में में शव्वरिहि सुहद्दे ।
अंदोलिउ गह चक्क हि, तारायण धणु हर गुण टंकार रव, गिरि दरि णिरुवमु चाउ करगें कलियउ, दिट्ठि मुट्ठि संघिउ वाणु वसंधर णा, पेसिउ वरि इत्यादि
१. ११
७. २८
काव्य में छन्दों की बहुलता उपलब्ध नहीं होती । ग्यारहवीं संधि के कड़वकों के आरम्भ में 'दोहड़ा' का प्रयोग मिलता है—
बोहड़ा-
सजलट्टु ।
हुउ पडिसद् दु । संघाणें मिलियउ । भवणु सोछाहें ।
११. ११
चंद पह चरिउ (चन्द्र प्रभ चरित)
चंदप्पह चरिउ यशःकीर्ति की अप्रकाशित कृति है । इसकी दो हस्तलिखित प्रतियाँआमेर शास्त्र भंडार में वर्तमान हैं ( प्र०सं० पृष्ठ ९८ ) । कृति की रचना कवि ने (हुवउ कुलके) कुमर सिंह के पुत्र सिद्धपाल के आग्रह से की थी । सिद्धपाल गुर्जर देशांतर्गत उमत्तगाम