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________________ २३७ अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक) उसका परिचय देता है । वासद्धर बाहुबलि चरित की रचना के लिए कहता है कि विज्जए जाए ण होइ सिद्धि, किं पुरिसे ण ण लखलखि। कि किविणएण संचिय धणेण, कि णिण्णेहें पिय संगमेण । कि णिज्जलेण घण गज्जिएण, कि सुहडें संगर भज्जिएण। कि अप्पणेण गुण कित्तणेण, किं अविचेएं विउ सत्तणेण । कि विप्पिएण पुणु रूसिएण, किं कव्वें लक्खण दूसिएण। कि मणुयत्तणि जं जणि अभब्वु, किं बुद्धिए जाए ण रइउ कटवु । १.७. इसी प्रसंग में कवि अपने से पूर्व के आचार्यों और कवियों का उल्लेख करता है। प्राचीन कवियों के पांडित्य को स्मरण कर निराश हुए कवि को प्रोत्साहित करता हुआ वासाधर कहता है "तं णिसुणिवि वासाहरू जंपइ, किं तुहुं वुह चिताउलु संपइ । जइ भयंकु किरहिं धवलइ भुवि, तो खज्जोउ ण छंडइ णियछवि। जइ खयराउ गयणे ग, सज्जइ, तो सिहिडि कि णियकमु वज्जइ । जइ कप्पयर अमिय फल कप्पइ, तो किं तर लज्जइ णिय संपइ । जसु जेत्तिउ मइ पसरु पवट्टइ, सो तेत्तिउ घरणियले पयट्टइ। अर्थात् यदि चन्द्रमा किरणों से पृथ्वी को धवलित करता है तो क्या खद्योत अपनी कान्ति छोड़ देता है ? यदि खगराज गरुड़ आकाश में उड़ता है तो क्या शिखण्डी अपनी चाल छोड़ देता है ? यदि कल्प वृक्ष अमृतफल-संपन्न होता है तो क्या साधारण वृक्ष अपनी संपदा से लज्जित होते हैं ? जिसका जितना मति-प्रसार होता है वह उतना ही धरणीतल पर प्रकट करता है। इसके अनन्तर कवि सज्जन दुर्जन स्मरण करता है-णि कोवि जइ खीरहिं सिंचइ, तोवि ण सो कडुवत्तणु मुंचइ । उछु को वि जइ सत्थे खंडइ, तोवि ण सो महुरत्तणु छंडइ । दुज्जण सुअण सहावें तप्पर, सूरु तवइ ससहरु सोयरकर ।। . इसके पश्चात् कवि ने काव्य-कथा प्रारम्भ की है। बीच-बीच में संस्कृत पद्य भी उद्धृत किये हैं। अन्त में निम्नलिखित पद्य से ग्रंथ समाप्त किया है श्रीमत्प्रभा चंद्र पदप्रसादादवाप्त बुद्धया धन पाल दक्षः । श्री साघु वासाधरनामधेयं स्वकाव्य सौधेयं कलसी फरोति ॥ १. लोक त्रयाभ्युदय कारण तीर्थनाथः इत्यादि २.१८ यद् गौरवं वहति विशति तण्डुलानाम् इत्यादि। २. २०
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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