SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश - साहित्य मणि को वि खणुवि धरेइ रोसु, मणि दित्तिएण वियणियां गोसु । to a far करइ कोवि, मिहुणई रइ कालि भिड़ंति तोवि ॥ १.५ इस वर्णन में कवि की धार्मिक भावना ही प्रधान रूप से परिलक्षित हुई है । २१६ सुलोचना चरिउ ( सुलोचना चरित्र ) 'सुलोचना चरिउ' अभी तक प्रकाशित नहीं हो सका । इसकी हस्तलिखित प्रति आमेर शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है । (प्र० सं० पृष्ठ १९० ) यह देवसेन गणि का लिखा हुआ २८ सन्धियों का एक काव्य है । कवि ने यह कृति राक्षस संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार के दिन समाप्त की । ज्योतिष की गणनानुसार इस तिथि और इस दिन दो राक्षस संवत्सर पड़ते हैं । एक २९ जुलाई सन् १०७५ में और दूसरा १६ जुलाई सन् १३१५ में । ३ कवि ने वाल्मीकि, व्यास, श्री हर्ष, कालिदास, बाण, मयूर, हलिय, गोविन्द, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त, भूपाल नामक कवियों का उल्लेख किया है। इनमें से जितने १. पवरावण -- प्रवर आपण, — हट्ट । रयण पवरु -- रत्न समूह । सहलइ - शोभित होता है । विच्छिण्णमग्गु - विस्तीर्ण मार्ग । तोरणालु -- तोरण से संयुक्त शाला । अभग्गु - अभग्न शाला । कवसीसय — कांगुर पंक्ति, टिप्पणी । सेयभाणु – चन्द्रमा । छम्मु — छद्म पाखंड । करण - - कारण से । मणि...गोसुमणियों की दीप्ति से प्रभात समय ज्ञात नहीं होता । स्इ कालि-रति काल में । २. रक्खस संवत्सरे बुह दिवसए, सुक्क चउद्दसि सावण मासए । चरिउ सुलोयणाह णिप्प, सद्द अत्थ वण्णय संपुंण्णउं । -ण वि महं कवित्त गव्वेण कियउ, अवरु ण केवि लाहें । कि जिण धम्महो अणुत्तर ?? मणे कय धमुच्छ हें ॥ सु० च० अन्तिम प्रशस्ति ३. पं० परमानन्द जैन शास्त्री का लेख सुलोचना चरित्र और देवसेन, अनेकान्त वर्ष ७, किरण ११-१२ पृष्ठ १६२ धत्ता ४. जहि वम्मिय वास सिरि हरिसहि । कालयास पमहइ कय हरिसहि । गोविंददिहि | वाण मयूर हलिय चउमुह अवर सयंभु पुप्फयंत भूवाल अवरेहि मि वहु सत्थ विरइयाई कव्वई अम्हारिसह न रंजइ उ तहावि धिट्ठ सत्थ रहिउ अप्पर दहि | पहाणहें । वियाहि । णिसुणेपिणु । वुह यणु । पयासमि । आयासमि । १.३
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy