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अपभ्रंश-साहित्य
ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में कवि ने अपने आपको जिनसेन का शिष्य कहा है।" कृति के रचनाकाल के संबन्ध में निम्नलिखित पद्य मिलता है--
णव सय णउ वाणुइये कत्तिय अमावस दिवसे । लिहियं पास पुराणं कइणा इह पउम णामेण ।
(१८वीं सन्धि के अन्त को प्रशस्ति) इस पद्य के अनुसार कृति का रचना काल ९९२ वि० सं० प्रतीत होता है। प्रो० हीरालाल जैन ने इसका समय शक संवत् ९९९ माना है ।।
ग्रन्थ का आरम्भ कवि ने “स्वस्ति श्री गणेशाय नमः । नमः श्री पार्श्वनाथाय।" इन शब्दों से किया है । इसके अनन्तर २४ तीर्थ करों का स्तवन किया गया है तदनंतर आत्म विनय और सज्जन दुर्जन स्मरण मिलता है । जैन संप्रदायानुकूल पार्श्वनाथ का चरित ही ग्रन्थ में अंकित किया गया है।
कवित्व की दृष्टि से छठी, दसवीं और ग्यारहवीं सन्धियाँ उल्लेखनीय हैं। छठी सन्धि में ग्रीष्मकाल और उस काल में जलक्रीड़ा (६. ११), वर्षाकाल (६. १२), हेमंत काल (६. १३) आदि के वर्णन सुन्दर हैं । दसवों सन्धि में सूर्यास्त (१०.९), रजनी (१०. १०) चन्द्रोदय (१०.११) आदि के वर्णन और ग्यारहवीं सन्धि में युद्ध वर्णन आकर्षक हैं।
कवि की कविता शक्ति के निदर्शन के लिए नीचे कुछ उद्धरण दिये जाते हैं। नारी वर्णन
सुकइ कइव जेम जण मणहर, हंस गवणि उत्तुंग पउहर । गव णीलप्पलणयण सुहावण, वम्मह हियय वाण उल्हावण । कुडिल चिहुर वर तिवलि विपसिय, सालंकार सहू सुहासिय । खंति जम जिण वरहु पियारी, गवरि हरहो भुवणत्तय मारी । राम हो जेम सीय मण खोहणि, कण्हहो रूप्पिणि जिह थिय मोहणि । जह रह मणि पल्लहिय अणंगहो, रोहिणिव्व जह गइण मियंक हो ।
परंपरागत उपमानों और उदाहरणों के द्वारा ही कवि ने नारी-रूप का अंकन किया है। प्रीष्मकाल में जलक्रीड़ा-- दुवई-पेखिवि गिभ कालु अइ दूसहो, जुवइहिं सहूं सवारणो।
णिग्गउ पुरजणेण जल कीडहिं, सहरसु वइरि वारणो॥
१. सिरि माहव सेणु महाणुहाउ, जिण सेण सिसु पुणुं तासु जाउ ।
तसु पुटव सिणेहि पउमकित्ति, उप्पण्णु सीसु जणु जासु चित्ति ।
तें जिण वर सासण भाविएण, कह विरइय जिणसेणहो मएण। १८.२२ २. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५०, अंक ३-४, पृ. ११७.