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अपभ्रंश - साहित्य
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वर्णन करता है ।
कथानक -- संक्षेप में कथा इस प्रकार है— कवि आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभ और सरस्वती की वन्दना से काव्य का आरम्भ करता है । भरत क्षेत्र में मध्यदेश नामक सुप्रसिद्ध देश था । उसमें वसन्तपुर नामक देवनगर के समान एक सुन्दर नगर था । कवि ने मध्यदेश और वसन्तपुर का काव्यमय भाषा में सुन्दर वर्णन किया है । वहाँ जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था । उसकी रानी का नाम लीलावती था । उसी नगर में कुबेर के समान घनी धनसेन नामक एक श्रेष्ठी रहता था । उसके धनदत्त और धनावह नामक दो पुत्र और धनश्री नामक अद्वितीय सुन्दरी पुत्री थी । युवावस्था में ही धनी विधवा हो गई । भाइयों के आश्वासन से वह उन्हीं के घर में रहकर घर की देखभाल करती हुई पूजा, दानादि से समय बिताने लगी ।
एक दिन धर्मघोष नामक एक मुनि उस नगर में आया। उसके धर्मोपदेश से धनश्री देव पूजा, दानादि पुण्य कर्म में निरत हो गई । उसकी दानशीलता पर उसकी भाभियाँ उससे जलने लगीं और उस पर व्यंग्य करने लगीं । धनश्री ने बड़े भाई और उसकी स्त्री यशोमती में भेद-भाव कर दिया । यशोमती व्याकुल और खिन्न हो गई । कालान्तर में उनकी भेदभावना धनश्री ने मिटा दी । इसी प्रकार छोटे भाई और उसकी स्त्री यशोदा में धनश्री ने पहले भेदभाव पैदा कर दिया, फिर उसे दूर किया । धनश्री धार्मिक जीवन बिताती हुई तपश्चर्या और व्रतों का पालन करती हुई देवलोक को प्राप्त हुई ( संधि १ ) । जन्मान्तर में धनदत्त औक धनावह, अयोध्या के राजा अशोकदत्त और उसकी रानी चंद्रलेखा के यहाँ क्रमशः समुद्रदत्त और वृषभदत्त नाम से उत्पन्न हुए । धनश्री हस्तिनापुर के राजा इभ्यपति शंख और उसकी रानी शीलवती के घर में पद्मश्री नाम से उत्पन्न हुई । पद्मश्री ने धीरे-धीरे युवावस्था में पदार्पण किया और वह अपनी सौन्दर्य छटा का चारों ओर प्रसार करने लगी ।
एक दिन वसन्तमास में जब चारों ओर कामदेव का साम्राज्य था पद्मश्री, अपूर्व श्री नामक उद्यान में गई । दैवयोग से वहाँ युवक समुद्रदत्त भी पहुँच गया। एक दूसरे के दर्शन कर दोनों परस्पर अनुरक्त हो गये । कवि ने पद्मश्री के पूर्वानुराग और उनकी प्रेम विह्वलता का सुन्दर वर्णन किया है। कालान्तर में दोनों का विवाह हो गया । वर वधू सहित अपने घर लौटा (२) । दोनों आनन्द से जीवन बिताने लगे । आठ वर्षों के बाद साकेत से वराह नामक एक लेख वाहक ने आकर समुद्रदत्त को उसकी माता की व्याकुलता का समाचार दिया । वराहदत्त घर लौट पड़ा। कवि ने इस प्रसंग में दोनों के हृदय की वियोग- वेदना का सुन्दर वर्णन किया है । गुरुजनों के आदेश से समुद्रदत्त अपनी स्त्री को ले जाने के लिए हस्तिनापुर गया। वहीं पद्मश्री के पूर्व जन्म के कर्म विपाक के कारण केलिप्रिय नामक पिशाच ने दोनों के प्रेम में भेदभाव पैदा कर दिया । समुद्रदत्त के मन में यह बात बैठ गई कि पद्मश्री किसी अन्य पुरुष से प्रेम करती है । समुद्रदत्त पद्मश्री से विरक्त हो उसे कोसने, डांटने फटकारने और धिक्कारने लगा । पति के इस दुर्व्यवहार से आश्चर्य चकित हुई पद्मश्री पति के आगे अनुनय विनय करने