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अपभ्रंश-साहित्य अलंकार-कवि ने भाषा को यद्यपि अलंकारों द्वारा ही अलंकृत करने का प्रयत्न नहीं किया फिर भी यत्र तत्र अलंकारों का प्रयोग हुआ ही है । शब्दालंकार और 'अर्थालंकार दोनों प्रकार के अलंकार प्रयुक्त हुए हैं। अर्थालंकारों में सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग अधिक दिखाई देता है । इन अलंकारों में भी सादृश्य योजना, वस्तु के स्वरूप का बोध कराने के लिए ही की गई है भाव तीव्रता के लिए नहीं। अप्रस्तुत योजना के लिए परंपरागत उपमानों के अतिरिक्त ऐसे भी उपमानों का प्रयोग कवि ने किया है जिनसे उसकी निरीक्षण शक्ति प्रतीत होती है। उदाहरणार्थ
करिकण्ण जेम थिर कहिं ण थाइ। पेक्खंतहं सिरि णिण्णासु जाइ।
जह सूयउ करयलि थिउ गलेइ । तह णारि विरत्ती खणि चलेइ ॥ ९.६ श्री की चंचलता की उपमा हाथी के कानों की चंचलता से और नारी के अनुराग की क्षणिकता की उपमा करतलगत पारे की बूंदों से देकर कवि ने अपनी निरीक्षण शक्ति और अनुभूति का सक्चा परिचय दिया है।
शब्दालंकारों में श्लेष और अनुप्रास के अतिरिक्त यमक का भी कवि ने प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ-- श्लेष के वि संगाम भूमीरसे रतया। सग्गिणी छंद मग्गेण संपत्तया।
३. १४.८ . कोई वीर संग्राम भूमि में अनुरक्त स्वर्गिणी-स्वर्गवासिनी-अप्सराओं के अभीष्ट मार्ग को प्राप्त हुए । श्लेष से कवि ने स्रग्विणी छंद का भी नाम निर्देश किया है जिसमें उसने रचना की है।
ता एतहिं रवि अत्थइरि गउ । बहु पहरहिं णं सूरु वि सुयउ ।
इतने में सूर्य अस्त हो गया। बहुत पहरों के बाद थका सूर्य मानो सो गया हो या
ढालेसहि भग्गा
भिडिया
(२.१९.१०) (३.१५.१०) (३.१५.१०) (५.१६.८) (८.६.५) (८.७.७) (८.१६.३) (१०.३.१०) (९.२.६ ) (१०.१६.६) (१०.२०.६)
-ढालेगा -भागे -भिड़े --अधोमुख (पंजाबी) --आभीर, अहीर --सिवल (वृक्ष) --घोड़ा
हेट्ठामुहुं अहीर सेंबल घोडे फुल्ले थालु एयारसि एयारहमि कप्पडु
--थाल -ग्यारह -कपड़ा