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________________ १८६ अपभ्रंश-साहित्य छखंड भमि रयणहं णिहाणु रयणायरो व्व सोहायमाणु । एत्यत्थि रवण्ण अंगदेसु महि महिलई गं किउ दिव्य वेसु । जहि सरवरि उग्गय पंकयाइं णं धरणि वयणि जयणुल्लयाई । जहि हालिणि रूवणिवद्धेणेह संल्लाह जक्ख णं दिव्व बेह । जहि बालहिं रक्खिय सालिखेत्त मोहेविणु गोयएं हरिण खंत । जहि दक्ख भुंजिवि वुह मुयंति थल कमर्लाह पंथिय सुह सुयंति । जहि सारणि सलिल सरोय पंति अइरेहइ मेइणि नं हसंति । १. ३.४-१० अर्थात् अंगदेश ऐसा सुन्दर है मानो पृथ्वी रूपी नारी ने दिव्य वेश धारण कर लिया हो । जहाँ सरोवरों में उगे हुए कमल पृथ्वी मुख पर नयनों के समान प्रतीत हो रहे हैं। जहाँ कृषक बालाओं के सोन्दर्य से आकृष्ट हो दिव्य देहधारी यक्ष भी स्तंभित और गतिशून्य हो खड़े रह जाते हैं । जहाँ चरते हुए हरिणों को गान से मुग्ध करती हुई बालाएँ शाली क्षेत्रों की रक्षा कर रही हैं । जहाँ द्राक्षाफलों का उपभोग करते हुए पथिक मार्ग के श्रमजन्य दुःख को खो देते हैं । जहाँ मार्ग में सरोवरों में खिले कमलों की पंक्ति शोभायमान हो रही है मानो हँसती हुई पृथ्वी शोभायमान हो रही हो । इन भौगोलिक वर्णनों के अतिरिक्त राजा धाड़िवाहन का वर्णन (१.५), श्मशान - का वर्णन (१.१७), राज प्रसाद का वर्णन ( ३-३), सिंहल द्वीप वर्णन (७.५) आदि प्रसंग भी काव्यमय हैं । रस-काव्य में वीर रस के अनेक प्रसंग मिलते हैं। किसी स्त्री के सौंन्दर्य पर मुग्ध हो उसे पाने की इच्छा से युद्ध नहीं होता अपितु युद्ध के परिणामस्वरूप पराजित राजाओं की राज पुत्रियाँ करकंडु के आगे आत्मसमर्पण कर देती हैं । एवं युद्ध की समाप्ति अनेक विवाहों में परिणत होती है । विवाह युद्ध के परिणाम स्वरूप हैं। इस प्रकार कवि ने वीर रस को शृङ्गार की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है । वीर रस का भी अन्ततोगत्वा शान्त रस में पर्यवसान होता है । काव्य में उत्साह भाव को उबुद्ध करने वाले अनेक सुन्दर वर्णन मिलते हैं । चम्पाधिपति युद्ध के लिए प्रस्थान करता है - ताव सो उठिओ धाइया किंकरा । संगरे जे वि देवाण भीयंकरा । वायु वेया हया सज्जिया कुंजरा । चक्क चिक्कार संचल्लिया रहवरा । वि कुंताई गेणहंतया । रायस्स जे भत्तया । णरा चारचित्ता वरा । हक्क डक्कार हुंकार मेल्लंतया । घाविया के के व सम्मा सामिस्स मण्णतया । पायपोमाण चावहत्था पसत्था रणे दुद्धरा । धाविया ते के वि कोवेण धावंति कप्पंतया । के वि उग्गिण्ण खग्गेहं दिप्पंतया । के वि रोमंच कंचेण संजुत्तया । के वि सण्णाह संबद्ध संगत्तया । के वि संगाम भूमी रसे रत्तया । सग्गिणी छंद मग्गेण संपत्तया ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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