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________________ अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक) १८५ पत्ता-क वि माण महल्ली मयणभर । करकंडहो समुहिय चलिय। थिर थोर पओहरि मयणयण । उत्तत्त कणय छवि उज्जलिय ॥' ३.२.१-१० अर्थात् करकंड के आगमन पर ध्यानावस्थित मुनियों के मन को विचलित करने वाली सुन्दरियाँ भी विक्षुब्ध हो उठीं। कोई स्त्री आवेग से चंचल हो चल पड़ी, कोई विह्वल हो द्वार पर खड़ी हो गई, कोई मुग्धा प्रेम लुब्ध हो दौड़ पड़ी, किसी ने गिरते हुए वस्त्र की भी परवाह न की, कोई अधरों पर काजल भरने लगी, आँखों में लाक्षारस लगाने लगी, कोई दिगम्बरों के समान आचरण करने लगी, किसी ने बच्चे को उलटा ही गोदी में ले लिया, किसी ने नूपुर को हाथ में पहना, किसी ने सिर के स्थान पर कटि प्रदेश पर माला डाल दी, और कोई बेचारे बिल्ली के बच्चे को अपना पुत्र समझ सप्रेम छोड़ना नहीं चाहती ।...... कोई स्थिर और स्थूल पयोधर वाली, तप्त कनक छवि के समान उज्ज्वल वर्ण वाली, मृगनयनी, मानिनी कामाकुल हो करकंड के सामने चल पड़ी। ___ इसी प्रकार मुनिराज शीलगुप्त के आगमन पर पुर-नारियों के हृदय में उत्साह और उनके दर्शन की उत्सुकता का वर्णन कवि ने निम्न शब्दों में किया हैकवि माणिणि चल्लिय ललिय देह। मणि चरण सरोयहं बद्धणेह । कवि णेउर सट्टे रण झणंति । संचल्लिय मुणिगुण णं थुगंति । कवि रमणु ण जंतउ परिगणेइ । मुणि दंसणु हियवएं सई मुणेइ । क वि अक्खय धूव भरेवि थालु । अइरहसइं चल्लिय लेवि बालु । क वि परमलु बहलु वहंति जाइ। विज़जाहरि णं महियलि विहाइ । ९. २.३-७ ___ अर्थात् कोई सुन्दरी मानिनी मुनि के चरण कमलों में अनुरक्त हो चल दी। कोई नूपुर शब्दों से झनझन करती हुई मानो मुनि गुण गान करती हुई चल पड़ी। कोई मुनिदर्शनों का हृदय में ध्यान धरती हुई जाते हुए पति का भी विचार नहीं करती। कोई थाल में अक्षत और धूप भर कर बच्चे को ले वेग से चल पड़ी। कोई सुगंध युक्त जाती हुई ऐसी प्रतीत होती थी मानो विद्याधरी पृथ्वी पर शोभित हो रही हो। ग्रंथ में भौगोलिक प्रदेशों के वर्णन भी कवि ने अनेक स्थलों पर किए हैं। इन वों में मानव जीवन का संबंध सर्वत्र दृष्टिगत होता है । अंग देश का वर्णन करता हुअी कवि कहता है १. रहसइं--रभसेन, सहसा। विहडप्फउ--विह्वल । वारि द्वार पर। णिव-नृप। णयलुल्लएं-नयन उल्ल (स्वार्थ में) । णिग्गंथ वित्ति-निर्ग्रन्थ वृत्ति। विवरीउ --विपरीत। वराय--वराका । मेल्लइ--छोड़ती है। थोर-स्थूल । २. थुणंति--स्तुति करती हुई । जंतउ--यान्त, जाते हुए को। मुणेह--बिचारती है। अइरहसइं--अतिरभसेन, अति वेग से।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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