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________________ अपभ्रंश-महाकाव्य १२५ हासिक घटनाओं का उल्लेख मात्र हो पाया है । वर्णनों में इतिवृत्तात्मकता की प्रधानता दृष्टिगत होती है। पत्थ सहाइ हुयउ णारायणु, लेप्पिणु संख चक्क गय पहरण । असि असि घाय फुलिंगयउहि, भजहि कायर वीरुक्कंठहिं। केण वि कासु वि सिरु दोहाविउ, समउडु कुंडल भूमि लुढाविउ । केणवि कासु वि धणु दोखंडिउ, केण वि असि फरेहि रणु मंडिउ। १०.१७ पंचायण गोवि पूरिउ, तेणवि कुरुवइ हियइ विसूरिउ। जयहो चमक्कारिउ रणु जायउ, दोहिंमि वलहं परोप्परु घाइउ । को गणेइ केत्तिय तिय रंडिया, सिर कमल करहिं धरत्तिय मंडिय। छत्त घमर घण घण किं सीहि, रत्त णईए तरंता दीसहि। मुछिय के वि केवि तहि गठ्ठिया, ऊसरेवि गय कायर तट्ठिया। रवि अत्यमिउं महाहव खेइया, उहय वलइ णिय णिय थाणहो गया। पढमउं दिणु गउ वहु णर जुज्झिया, केतिय पडिय संखडउ वुझिया। रवि उग्गमिउं तामऊ वग्गिय, दिग्ण तूर विण्णिवि वल लग्गिय । खेयर खेयरेहि सहुं धाइय, गय वर गय वरेहि सं पाइय। साइय साइहि पाइकहि, पाइक्कई रण सम्मुहुँ ढुक्किय। संदण संदणेहि संदाणिय, सुहडें सुहडविणउं ऊलक्खिउ । सद्दे वहरि परोप्परु घाइयः, हुउ कद्दमु रत्त णइ वहाविय । पाडिय हय गय रह वाइत्तइ, दीसहि सुहडहं सीस लुढंतइ। छिण्णइ सीस कवंधइ णहि, किंचिवि असि कर धाइवि वच्चहि। १०.१९ कवि के विरह वर्णन भी सामान्य कोटि के हैं। विरह की तीव्र व्यंजना का अभाव सा ही परिलक्षित होता है । उदाहरणार्थ निम्नलिखित जीवंजसा का विलाप देखिये परिदेवइ कंदइ णाह णाह, का कहि गउ सामिय करि अणाह। महु हिय इछुहोप्पिणु गाढदाहु, हा वयरिहि मणि परि किउ उछाहु । हा जाय वाहं पर सोहलउ जाउ, हा णाह मज्झु हिव वत्तु आउ। उरु ताडिउ णयणंसुहिं किण्हु, किउ थणयडु आकोसियउ कण्हु। रोवतं रुवाइय वणह पंक्खि, लुट्टति हिरिण णिहे गुंठियक्खि । ससवतिहिं कंसहो उवरि पडिया, रावइ जीवंजस विरह गडिय। हा हा पइ विणु महु कवणु छाया, जय पहु सय तापई विणु वराय । पडि वयणु देहि एक्क सिहाए, पिय जामण हियउ फुडेवि जाइ। खणि खणि मुछिज्जइ महि विहाए, वहलंजण सामल रत्ति णाइ। किउ संसयारु कंसहो वि तेहि, मिल्लेप्पिणु सव्वेहि जायवेहि ॥
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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