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अपभ्रंश-साहित्य
के के न गए महि महु डिल्ली ढिल्लाय दोह होहाय ।
विहुरंत जासु कित्ती तं गया नहि गया हुंति ॥' कुछ हस्तलिखित प्रतियों में शब्द-रूप भिन्न हैं । तो भी इन पद्यों से भी यही प्रकट होता है कि ये पद्य उत्तरकालीन अपभ्रंश के कारण तत्कालीन प्रान्तीय भाषाओं के प्रभाव से प्रभावित अपभ्रंश रूप ही हैं।
२. रासो की शब्द-योजना और अन्य अपभ्रंश काव्यों की शब्द-योजना में इतना . साम्य है कि उन्हें एक ही भाषा का मानना असंगत नहीं। अपभ्रंश काव्यों में अनुरणनात्मक या ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग अपभ्रंश कवियों की विशेषता रही है। इस प्रकार की शब्द-योजना से अर्थावबोव का प्रयत्न अपभ्रंश कवियों ने अपने काव्यों में किया है । पृथ्वीराज रासो में भी यह प्रवृत्ति उदप्र रूप से दिखाई देती है । उदाहरण के लिए निम्नलिखित युद्धस्थल का वर्णन देख सकते हैं
हहकंत कूदन्त नंचं कमंध। कनकंत बजंत कुटुंत संघ ॥ लहक्कंत लूटंत तूटत भूमं । भुकंते धुकंते दोऊ वश्य झूमं ॥ दडक्कत दीसंत पीसंत दंतं ।।
पद्य सं० २११० करकंड चरिउ के निम्नलिखित युद्धवर्णन में ध्वन्यात्मक शब्दों की योजना देखिए
वज्जति वज्जाइं सज्जति सेण्णाई। कुंताई भज्जति कुंजरई गज्जंति । गत्ताई तुटुंति मुंडाई फुटुंति ।
हड्डाई मोडंति गीवाइं तोडंति ।
क. च. ३. १५ इसी प्रकार पुष्पदन्त के जसहर चरिउ का एक उद्धरण देखिये
तोडइ तडत्ति तणु बंधणई मोडइ कडत्ति हड्डुइं घणई। फाडइ चडति चम्मई चलई घुट्टइ घडत्ति सोणिय जलई ।
ज. च. २. ३७. ३-४
१. राजस्थान भारती भाग १, अंक १, में डा० दशरथ शर्मा और प्रो० मीनाराम रंगा के लेख से उद्धृत ।
रासो विषयक ऐतिहासिक सामग्री के लिए लेखक डा० दशरथ शर्मा का आभारी है।
२. रासो के उद्धरणों के निर्देश के लिए लेखक डा० ओमप्रकाश का कृतज्ञ है।