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________________ अपभ्रंश महाकाव्य ११५ इस प्रकार के ध्वन्यात्मक शब्दों की बहुलता का हिन्दी कवियों में प्रायः अभाव है । ३. शब्दों, वाक्यों या वाक्यांशों की आवृत्ति से भाषा को बलवती बनाने के अनक उदाहरण हमें अपभ्रंश काव्यों में मिलते हैं । पृथ्वीराज रासो में भी यही प्रवृत्ति दृष्टिगत होती है । यथा हम्मीर, इन वेरां इन वेरां हम्मीर, इन वेरां के सिंघ, इन वेरां हम्मीर, नहीं औनुन बंखोजे । छत्रि धम्मह संचीजं । ' बर विवर जैम उंभारं । सूर क्यों स्यार संभार । सो धम्म सार जहि जीब-रक्ख सो सो धम्भु साह जहि सच्च-वाय सो पृथ्वीराज रासो, पद्य २२२२ धस्सु सार जहि नियम- संत । धम्भु सार जहि नत्थि साय । पउम सिरीचरिउ १. ८. ९६-९७ इसी प्रकार रासो में और अपभ्रंश काव्यों में अनेक स्थल मिलते हैं जिनमें भाव को प्रबलता से अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों या वाक्यांशों की आवृत्ति की गई है। ४. पुष्पदन्त के महापुराण का विवेचन करते हुए ऊपर एक नवीन अलंकार की ओर निर्देश किया जा चुका है। इसमें दो दृश्यों, घटनाओं या दो वस्तुओं की तुलना की जाती है । उपमेयगत और उपमानगत वाक्यों की अंग-प्रत्यंग सहित समता प्रदर्शित की जाती है। इस अलंकार का नाम, 'ध्वनित रूपक' रखा जा सकता है । पुष्पदन्त के महापुराण में इस प्रकार के अनेक दृश्य उपस्थित किये गये हैं। उदाहरण के लिए सायं-काल और युद्धभूमि के दृश्य की समता का प्रदर्शक निम्नलिखित उद्धरण देखिये - एतहि रणु कयसूरत्थवणउं एतहि जायउं सूरत्थवणउं । एतहि वीरहं वियलिउ लोहिउ एतहि जगु संज्ञाइ सोहिउ । एतहि कालउ गयमय विग्भमु एतहि पसरह मंदु तमोतमु । एतहि करि मोत्तियइं विहत्तई एतहि उग्गमियहं णक्खत्तङ्कं । एतहि जय णरवर जसु धवलउ एतहि धावइ ससियर मेलउ | एतहि जोह विमुक्es चक्कई एतहि विरहें ear णिसागम fक कर तह रणु एडुण रडियई चक्कई । बुज्झइ जुज्झइ भडयणु । महापुराण २८. ३४. १-७ अर्थात् इधर रण में शूरों का अस्त हो रहा है उधर सूर्यास्त हो रहा है, इधर वीरों का रक्त विगलित हुआ उधर संसार संध्याराग रंजित हुआ, इधर कृष्ण गज, मद- विलास है उधर कृष्ण अंधकार, इधर हस्तियों के गंडस्थल से मोती विकीर्णं हुए उधर नक्षत्रों का उदय हुआ, इधर विजित नरपति के यश से धवलिमा उधर चन्द्र ज्योत्स्ना, इधर "योद्धाओं से विमुक्त चक्र उधर भी वियोग से आक्रन्दन करते हुए चक्रवाक । उभयत्र _सादृश्य के कारण उस युद्धभूमि में निशागम का ज्ञान नहीं हुआ । संध्या और रणभूमि में भेद न करते हुए योद्धा युद्ध करते रहे ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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