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________________ अपभ्रंश-महाकाव्य रासो की अप्रामाणिकता का वाद-विवाद इसी कारण उठा कि उसका प्रारम्भिक रूप परिवर्तित, परिवद्धित और विकृत हो गया है । इसमें अनेक असंबद्ध और अनैतिहासिक घटनाओं का समावेश हो गया है। यदि मूलरूप प्राप्त होता तो यह वादविवाद कभी का शान्त हो गया होता । रासो के आलोचनात्मक अध्ययन से इसमें से अनेक प्रक्षिप्त अंशों को दूर किया जा सकता है और इसके प्रारम्भिक रूप को देखा जा सकता है। कवि राव मोहनसिंह ने इस प्रकार के अध्ययन से रासो के अनेक प्रक्षिप्त और मूल अंशों को पृथक करने का प्रयत्न किया है।' रासो की भाषा डिंगल है या पिंगल, प्राचीन राजस्थानी है या प्राचीन पश्चिमी हिन्दी ( ब्रजभाषा ) इस झमेले में पड़े बिना इतना तो निश्चित है कि वर्तमान रूप में प्राप्त रासो के वृहत् रूप की भाषा मिश्रित है। कहीं प्राचीन राजस्थानी, कहीं प्राचीन पश्चिमी हिन्दी, कहीं सानुस्वार अक्षरों की भरमार और कहीं द्वित्व व्यंजनों की अधिकता है । कहीं क्रियाओं के परवर्ती रूप मिलते हैं तो कहीं उत्तरकालीन अपभ्रंश के रूप । रासो का यह भाषा-वैचित्र्य उन परिवर्तनों का परिणाम है जो समय समय पर मूल ग्रंथ में होते रहे हैं। मध्य रूप की भाषा के विषय में भी सामान्यतः यही कहा जा सकता है। किन्तु लघु और लघुतम रूपों की भाषा अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन है और यह अधिकाधिक अपभ्रंश के निकट पहुँचती प्रतीत होती है। कई स्थल तो ऐसे हैं जहाँ कि सामान्य परिवर्तन से ही भाषा अपभ्रंश बन जाती है । कान्तिसागर जी ने जो प्रति ढूंढ़ निकाली है उसकी भाषा मुनि जी के मतानुसार अपभ्रंश है। अतः रासो के मूलरूप की भाषा का अपभ्रंश होना संभव है। लेखक की भी यही धारणा है कि मूलरूप संभवतः अपभ्रंश में ही था। इसके लिए निम्नलिखित कारण विचारणीय है। १. १३वीं शताब्दी के पुरातन प्रबन्ध संग्रह नामक ग्रन्थ में कुछ पद्य पृथ्वीराज रासो के मिलते हैं । इनमें से दो पद्य पृथ्वीराज प्रबन्ध ( प्रबन्ध संख्या ४० ) और दो जयचन्द प्रबन्ध ( प्रबन्ध संख्या ४१ ) में उल्लिखित हैं। इन चार पद्यों में से प्रथम तीन पद्य रासो के भिन्न-भिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न रूप में पाये जाते हैं। ये पञ्च इस प्रकार है १. राजस्थान भारती, भाग १, अंक २-३ १९४६, पृ० २९ २. डा० दशरथ शर्मा और प्रो० मीनाराम रंगा, दि ओरिजनल पृथ्वीरान रासो, एन अपभ्रंश वर्क, राजस्थान भारती, भाग १, अंक १, १९४६, पृ० ९४-१०० ३. प्रबन्ध चिन्तामणि ग्रंयसंबद्ध पुरातन प्रबन्धसंग्रह, संपादक जिन विजब मुनि, प्रकाशन कर्ता, अधिष्ठाता सिंघी जैन विद्यापीठ, कलकत्ता. वि. सं० १९९२
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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