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अपभ्रंश- साहित्य
होता गया । आजकल जो रूप पृथ्वीराज रासो का उपलब्ध है उसे पूर्णतया मूलरूप नहीं माना जा सकता । किन्तु इसका विशुद्ध मूलरूप कदाचित् अपभ्रंश में था ऐसी कल्पना अनेक विद्वानों ने की है जो संगत भी प्रतीत होती है ।
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अब तक रासों के चार रूप उपलब्ध हो चुके हैं - (१) वृहत् रूप, इसमें लगभग एक लाख पद्य हैं । काशी नागरी प्रचारिणी से प्रकाशित संस्करण में यही रूप है । इसमें अध्यायों को समय या प्रस्ताव कहा गया है। इसमें ६८ समय हैं । ( २ ) दूसरा मध्यम रूप जो लगभग दस हजार पद्य का है । इसमें अध्यायों का नाम प्रस्ताव दिया गया है । प्रतिभेद से इसमें छयालीस और बयालीस प्रस्ताव हैं । इसका संपादन लाहौर में हो रहा है । (३) तीसरा लघु रूप बीकानेर का ( संस्करण) है । इसमें साढ़े तीन हजार के लगभग पद्य मिलते हैं । इसमें १९ समय या खंड मिलते हैं । इतिहास और भाषा शस्त्रादि प्रस्तावनाओं सहित इसके संपादन का भार डा० दशरथ शर्मा और प्रो० मीनाराम रंगा ने स्वीकार किया था । ( ४ ) चौथा लघुतम संस्करण, श्रीयुत अगरचन्द नाहटा की कृपा से प्राप्त हुआ है । इसमें पद्य संख्या तेरह सौ के लगभग है । इसमें अध्यायों का विभाजन नहीं । आदि से अन्त तक एक ही अध्याय है । भाषा सभी प्राप्त रूपों से अपेक्षाकृत प्राचीन प्रतीत होती है । इसका संपादन प्रो० नरोत्तमदास और श्री अगरचन्द नाहटा कर रहे हैं ।
कुछ दिन पहिले मुनि कान्तिसागर जी को पृथ्वीराज रासो की एक पुरानी प्रति मिली थी । इसकी पुष्पिका इस प्रकार है - 'विक्रम संवत् १४०३ कार्तिक शुक्ल पंचम्यां तुगलक फिरोज शाहि विजय राज्ये ढिल्यां मध्ये लिपि कृतं..." इत्यादि । सम्पूर्ण ग्रंथ छप्पय छन्द में ग्रथित है । भाषा सभी रूपों से प्राचीन प्रतीत होती है। इसे रासो का पांचवा रूप कह सकते हैं। इससे इतना तो सिद्ध ही है कि रासो का मूल रूप इस के अधिक निकट रहा होगा और इतनी विविधताओं से मुक्त भी रहा होगा ।
पृथ्वीराज रासो के इन प्राप्त रूपों में से किसी को निश्चय से पूर्णतया मूलरूप नहीं कहा जा सकता । किन्तु पुरातन जैन प्रबन्धों में पृथ्वीराज रासो से कुछ पद्य उदाहरण रूप में दिये गये मिलते हैं जिनसे इस ग्रंथ की प्रामाणिकता और मूलरूप के अपभ्रंश में होने के संकेत मिलते हैं । उपरिलिखित सभी रूपों की प्रतियों में उनके उद्धारकर्ता का निर्देश भी किया गया है। कालवश मूलरूप के अस्त व्यस्त हो जाने के कारण, मूलरूप को अपनी बुद्धि के अनुसार उचित रूप देने का प्रयत्न इन उद्धारकों ने किया ।
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१. डा० दशरथ शर्मा और प्रो० मीनाराम रंगा का लेख, राजस्थान भारती, भाग १, अंक ४, पृ० ५१ ।
२. नरोत्तमदास स्वामी, राजस्थान भारती भाग १,
अंक १, अप्रैल १९४६, पृ० ३
३. विशाल भारत, नवं, १९४६, पृ० ३३१-३३२