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अपभ्रंश-साहित्य निर्दिष्ट कवियों में से असग को छोड़कर सब ९वीं शताब्दी के लगभग या उससे पूर्व हुए। असग ने अपना वीर चरित ९१० शक सम्वत् अर्थात् ९८८ ई० में लिखा था।' अतः कल्पना की जा सकती है कि धवल भी १०वीं शताब्दी के बाद ही हुआ होगा।
ऊपर निर्देश किया जा चुका है कि ग्रंथ में १२२ सन्धियां हैं। सन्धियों में कड़वकों की कोई संख्या निश्चित नहीं। ७वीं सन्धि में २१ कड़वक हैं और १११वीं सन्धि में केवल ४ । सन्धियों के अन्तिम पत्ता में धवल शब्द का प्रयोग मिलता है। प्रति में प्रायः प्रत्येक सन्धि की समाप्ति पर 'भाषा वर्णः', 'पंचम वर्णः', 'मालवेसिका वर्णः', 'कोह वर्णः, इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया है । इस प्रकार के शब्दों में मंगलपंच, टकार, पंचम, हिंदोलिका, वकार, कोलाह इत्यादि शब्दों का प्रयोग भी मिलता है।
ग्रंथ का आरम्भ निम्नलिखित पद्यों से होता हैस्वरित । आदि जिनं प्रणम्य ।
लोयाण दीह णालं गेमि हली · कण्ह केसर सुसोहं। मह पुरिस तिसट्ठिदलं हरिवंस सरोरुहं जयउ ॥१॥ हरिपंडु सुआण कहा चउमुह वासेहि भासिया जह या।। तह विरयमि लोय पिया जेण ण णासेइ दंसणं पउरें ॥२॥
जह गोत्तमणे भणियं सेणिय राएण पुछियं जह या ।
जह जिणसेणेण कयं तह विरयमि कि पि उद्देसं ॥४॥ . सुव्बउ भवियाणंदं पिसुण चउक्का अभव्व जण सूलं । घण्णय धवलेण कयं हरिवंम सुसोहणे कव्वं ॥८॥
जिण णाहहु कुसुमंजलि देविणु णिभूसण मुणिवर पणवेप्पिणु ।
पवर चरिय हरिवंस कवित्तो अप्पउ पयडिउ सूरहो पुत्तो ॥१०॥ उपरिलिखित पद्यों में कवि ने हरिवंश पुराण को सरोरुह (कमल) कहा है और यह भी निर्देश किया है कि इसकी कथा चतुर्मुख और व्यास ने भी पूर्व काल में कही।
इक्कहि जिणसासणि उचलियउ सेढ मह कइ जसु णिम्मलियउ । पउमचरिउ जे भुवणि पयासिउ साहुणरहि परवरहि पसंसिउ ।
हउ जडु तो वि किंपि अब्भासमि महियलि जे णियबुद्धि पयासमि । पत्ता-सहसकिरणु रइवेवि गयणि चडै वि तिमिर असेसु पणासइ ।
णियसत्तें मणिदीवउ जइवि सुथोवेउ तुविउज्जोउ पयासइ ।
१. कैटेलोग आफ संस्कृत एंड प्राकृत मनुस्क्रिप्ट्स इन दि सी. पी. एंड बरार, नागपुर सन् १९२६, भूमिका पृष्ठ ४९.