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अपभ्रंश-महाकाव्य
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लोभरहित थीं, सज्जन हृदयों के समान निर्विभिन्न- टूटी-फूटी - कोमल थीं और दुर्जनों के कृत्यों के समान अकियत्थ - - धनरहित - व्यर्थ एवं निष्प्रयोजन थीं ।
विरोधाभास का उदाहरण निम्नलिखित स्थल में मिलता है
असिरिव सिरिवत्त सजल वरंग वरंगणवि । मुद्धवि सवियार रंजणसोह निरंजणवि ॥
११. ६. १२३
अर्थात् निर्धन (असिरि) होते हुए भी वह सिरिवत्त अर्थात् श्रीमती थी । वरांग न होते हुए भी सजल वरांग थी अर्थात् स्त्री श्रेष्ठ ( वरांगना ) थी और प्रस्वेदयुक्त श्रेष्ठ अंगों वाली थी । मुग्धा (मूर्खा) होते हुए भी विचारशील थी अर्थात सीधी सादी थी और विचारशील भी । निरंजन होते हुए भी रंजन -शोभा अर्थात् अंजन रहित आंखों वाली थी और मोहक शोभा वाली थी ।
भाषा -- अलंकारों के अतिरिक्त भाषा में लोकोक्तियों और वाग्धाराओं का भी प्रयोग मिलता है
"क घिउ होइ विरोलिए पाणिए" क्या पानी मथने से घी हो सकता है ?
२. ७. ८.
"जंतही मूल वि जाइ लाहु चितंतहो"
लाभ का विचार करते हुए प्राणी का मूल भी नष्ट हो जाता है । "कलुणइ सुमीस करयल मलंति विहुणंति सीस"
करुणा से ओतप्रोत हो, हाथ मलते हैं और सिर धुनते हैं ।
शब्द योजना द्वारा कवि की भाषा में शब्द - चित्र खड़ा करने की क्षमता है“सोहइ दप्पणि कील करंती चिहर तरंग भंग विवरंति”
की गार सज्जा का और
“सलावय्य लावन्न नीरे तरंती" में नारी
चंचलता का चित्र अंकित किया है । सुभाषित - काव्य में अनेक सूक्तियों और सुभाषितों के प्रयोग से भाषा बलवती गई है।
जैसे यदृच्छया दुःख आते हैं वैसे ही सहसा सुख भी आ जाते हैं । जोव्वण वियार रस बस पसरि सो सूरउ सो पंडियउ । चल मम्मण वयणुल्लाव एहिं जो परतिग्रहण खंडियउ ॥
३. ११.५.
३. २५. ३
' दइवायत्तु जइ वि विलसिव्बउ तो पुरिसि ववसाउ करिव्वज" यद्यपि सब कर्म दैवाधीन हैं तथापि मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए । अइच्छय होंति जिम दुक्खइं सहसा परिणवंति तिह सोक्खई
३. १७: ८
३. १८. ९
वही गूर है और वही पंडित है जो यौवन के विषय विकारों के बढ़ने पर परस्त्रियों के चंचल कामोद्दीपक वचनों से प्रभावित नहीं होता ।