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व्यतिरेक
अपभ्रंश-साहित्य
उ मयकलंक पडलें मलिणु ण धरइ वय वकतणु । महं मुहि चंदें समु भणमि जइ तो कवणु कइतणु ॥
५४१.१४-१५.
यदि उस सुन्दरी का मुख में चन्द्र के समान कहूँ तो मेरा क्या कवित्व ? उसके मुख में न मृगांक के समान कलंक है व मलिनता, वह मुख क्षय ( खय) रहित है और न उसमें वक्रता है ।
विरोध
धत्ता - कुवलय बंषु विगाहु णउ दोसायर जायउ । जो इक्साउहि वंसि जरवइ रूढिइ आयउ |
६९. ११
राजा दशरथ, कुवलय बन्धु होते हुए भी दोषाकर—चन्द्रमा - न था अर्थात् दशरथ कुचलय - पृथ्वी मंडल -- का बन्धु होते हुए भी दोषों का आकर नहीं था । भ्रान्तिमान्
रंधायार थियउ अंधार बुद्धसंक पयगइ र पासेय बिंदु तेणुज्जलु दिट्ठ भुयंगहि णं
मोरें पंडe सप्यु विधाप्पिवि मुझें कह व ण महिउ
भडप्पिवि ।
१६. २४. ९-१२
अर्थात् जहाँ बिल्ली छिद्रों से प्रवेश करती हुई चन्द्र किरणों से शुभ्र हुए अंधकार को दूध समझ कर पी रही है । रतिप्रस्वेद - बिन्दुओं को भुजंग मुक्ताफल समझता है । रंधों से प्रवेश करती हुई चन्द्र किरणों को श्वेत सर्प समझ कर मूढ़ मयूर ने कितनी बार झड़प कर नहीं पकड़ा ?
मज्जारइ । मुत्ताहलु ।
परिसंख्या - जहिं हयवर हरि णउ णारीयण वंसु जि छिद्दसहिउ णउ पुरयण ।
अंजणु णयणि जेत्थु ण तबोहणि णायभंगु गारुड ण धणज्जणि । महिं कुंजद भण्णइ मायंगउ णउ माणवु कइ वि मायं गउ ॥'
२२. ३.
लंकारों के प्रयोग में कवि ने एक विशेष प्रकार के अलंकरण से काम लिया है । इसमें दो वस्तुओं या दृश्यों का साम्य प्रदर्शित किया गया है । उपमा में एक उपमेय के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के उपमानों का प्रयोग होता ही रहा है । रूपक में उपमेय और उपमान के अत्यधिक साम्य के कारण एक का दूसरे पर आरोप कर दिया जाता है । मांग रूपक में यह आरोप अंगों सहित होता है । कवि ने एक उपमेय और एक उपमान
१. हयवर - हत है वर जिसका । अंजणु -- अंजन, पाप । णायभंगु -- नाग भंग, न्याय भंग । मायं गड-माया को प्राप्त ।