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अपभ्रंश-साहित्य
अभाव है ।
वसन्त ऋतु का वर्णन करते हुए कवि ने जहाँ अन्य पदार्थों का अंकन किया है वहाँ एक ही घत्ता में वसन्त के प्रभावातिशय का ऐसा मनोहारी चित्रण किया है जो लम्बे-लम्बे वर्णनों से भी नहीं हो पाता । कवि कहता है-
घत्ता -- अंकुरियड कुसमिउ पल्सविउ मह समयागम विलसइ । विसं ति अचेयण तरु, वि जहि तहि गरु कि णउ वियसइ ॥ २८. १३. १०-११.
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अर्थात् अंकुरित कुसुमित पल्लवित बसन्तागम शोभित होता है । जिस समय अचेतन वृक्ष भी विकसित हो जाते हैं उस समय क्या चेतन नर विकसित न हों ?
प्रकृति को चेतन रूप में भी कवि ने ( ५.३.१२ - १४) लिया है । प्रकृति का परंपरागत वर्णन करता हुआ भी कवि प्रकृति को जीवन से सुसंबद्ध देखता है अतएव ऐसे दृश्य जो मानव जीवन से सम्बद्ध हैं कवि की दृष्टि से ओझल नहीं हो पाते । वैत्ताढ्य पर्वत का वर्णन करता हुआ कवि कहता हैनिसि चंदयंत सलिलेहि गलइ वासरि रवि मणि माणिक्क पहा दिष्णावलोउ जहिं चक्कवाय ण
जलणेण जलइ मुणंति सोउ ।
८. ११.६ - १०
अर्थात् यह पर्वत रात्रि के चन्द्रकान्त मणियों से झरते जलों से आप्लावित रहता है, दिन में सूर्यकान्त मणियों से उत्थित अग्नियों से प्रज्वलित रहता है, माणिक्य प्रभा से आलोकित इस प्रदेश में रात्रि के अभाव से चक्रवाक पक्षियों को वियोग दुःख का अनुभव ही नहीं होता ।
इसी प्रसंग में सहसा कवि कह उठता है
जहिं दक्खामंडव यलि सुयंति पहि पंथिय दक्खा रसु पियंति । धवलूढ जंत पी लिज्जमाणु पुंडुच्छु खंड रस् पवहमाणु । कह कव्व रस व जण पियइ ताम तित्तीइ होइ सिर कंपु जाम । जहिं पिक्क कलम कणिसइं चरंति सुय यत्तणु हलिणिहि करंति । धत्ता - सिरि सयण हिं णं वहुवयणहिं विलसंती दिणि रायइ ।
जहिं पोमिणि कलमहुयर झुणि णं भाणुहि गुण गायइ ।
८. १२. १२-१७
अर्थात् जहाँ पथिक द्राक्षा मंडप के नीचे सोते हैं और मार्ग में द्राक्षारस पीते हैं, जहाँ वृषभ-वाहित-यंत्र से पेरे जाते हुए पौंडे गन्ने के बहते हुए रस को लोग कविकाव्यरस के समान तब तक पीते हैं जब तक कि तृप्ति से सिर झूम नहीं पड़ता । जहाँ पके धान के कणों को शुक खाते 'और कृषक कन्याओं के लिए दूतत्व का काम करते हैं । जहाँ कमलिनी अनेक पद्म रूपी मुखों से दिन में शोभित होती है और मधुरमधुकर गुंजार ध्वनि से मानो सूर्य के गुण गाती है ।
भिन्न-भिन्न प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हुए कवि ने बीच में कहीं कहीं ऐसे