________________
मूर्तिपूजा के विरोधी कुछ सन्त मूर्ति को मात्र पाषाण मानते हैं/ कहते हैं, जबकि पाषाण (पत्थर ) व पाषाण से बनी मूर्ति में अंतर तो निश्चित है, जैसे एक कोरे कागज व एक चित्रित कागज में अंतर है या यों कहें कि एक कोरे कागज पर पैर रखकर चलने में संकोच नहीं लेकिन उसी पर अपने आराध्य का चित्र या मंत्र छपा हो तो या रुपये का मूल्य छपा हो तो क्या पाँव रखने की हिम्मत जुटा पायेंगे ? बैंक का चैक जब तक हस्ताक्षरित न हो तब तक उस चैक का मूल्य नहीं, मात्र हस्ताक्षर करते ही वह लाखों-करोड़ों या अरबों की कीमत का हो सकता है। पाषाण की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद तो वह परम आदरणीय एवं वंदनीय हो जाती है जैसे कोरा चैक हस्ताक्षरित होने के उपरान्त महत्वपूर्ण हो जाता है (बशर्ते उस खाते में उस सममूल्य का रुपया जमा हो) जब कोई कागज पर लिखने मात्र से उसके मूल्य में, उसके प्रति भाव में अंतर आ जाता है तो एक पाषाण को मूर्ति का रुप देने के बाद उसके प्रति भावों में अंतर न आये, यह कैसे संभव है ?
___ परमात्मा की मूर्ति का विरोध करने वाले पाषाण व धातु की मूर्ति को पाषाण व धातु से अधिक कुछ नहीं मानते। मैंने एक अमूर्तिपूजक संत, जो अपने सम्प्रदाय का नेतृत्व करते है, उन्हें लिखा था कि आप मूर्ति को मात्र पाषाण या धातु न मानकर जिस व्यक्ति विशेष या वस्तु विशेष की मूर्ति है उसकी मूर्ति माने। परमात्मा की मूर्ति
को परमात्मा माने तो मिथ्यात्व हो सकता है पर परमात्मा की मूर्ति को परमात्मा की मूर्ति मानना कैसे मिथ्यात्व होगा? मूर्तिपूजक भी परमात्मा की मूर्ति का पूजन वन्दन करते समय भावना से/ साधक के माध्यम से साध्य का पूजन-वंदन करते है। धर्म तो है ही भावना प्रधान। मूर्ति का इस भावना से पूजन वंदन, कि हम परमात्मा का पूजन-वन्दन कर रहे है, फल निश्चित ही मिलेगा। कल्पना कीजिये, आपने मूर्तिकार के यहाँ एक पाषाण पड़ा
* 25 .