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देखा आपके मन में कोई विचार परिवर्तन नहीं हुआ। आपने अपने पूर्वजों की या अपने आराध्य की मूर्ति बनाने को मूर्तिकार को कहा व एक निश्चित समयोपरांत उस मूर्तिकार के पास गये वहाँ पर उस पत्थर के स्थान पर उसी पत्थर की बनी अपने पूर्वजों की या आराध्य की मूर्ति देखी तो अत्यन्त प्रसन्नता की अनुभूति हुई, गौरव का अनुभव हुआ, श्रद्धा मन में उमड़ पड़ी। ऐसा क्यों होता है, क्या कभी आपने सोचा ? पत्थर तो पत्थर है लेकिन कुशल मूर्तिकार द्वारा उसका एक निश्चित रूप दे देने के कारण आप उसे पत्थर न मानकर, जिसकी मूर्ति है उसी का रूप मानेंगे व उसी के अनुरूप मन के भाव परिवर्तित होंगे।
मूर्तिपूजा का विरोध किन परिस्थितियों में व कब हुआ, यह चिंतन व शोध का एक गंभीर विषय है। इसके साथ ही इस गहराई में भी जाने की आवश्यकता है कि मूर्तिपूजा के विरोध का आधार क्या है? इस विषय पर शोधकार्य अमूर्तिपूजक अथवा मूर्तिपूजा का विरोध करने वाले भी अपने विद्वान संत/साध्वियों द्वारा करा सकते हैं, यदि वे तटस्थ व पूर्वाग्रह से मुक्त होकर कर सकें। क्या सही मायनों में विरोध की शुरूआत मूर्तिपूजा से हुई या मूर्तिपूजा की पद्धति से विरोध हुआ? मूर्तिपूजा में आडंबर के कारण मूर्तिपूजा का विरोध या मूर्तिपूजा में आई रूढिवादिता को समाप्त करने के लिए मूर्तिपूजा का विरोध प्रारम्भ हुआ ? या फिर मुगलों द्वारा मन्दिर व मूर्ति तोड़े जाने के कारण एक गुट ने निर्णय लिया कि नये सिरे से मन्दिर व मूर्तियाँ न बनाई जायें। वही गुट कालांतर में मूर्ति व मन्दिर का विरोधी कहलाने लगा। या मुगलों के आतंक के कारण परिस्थितिवश मूर्तिपूजा व मन्दिर जाना बंद किया गया या मुगलों की खुशामदी करने के लिए कुछ लोगों ने मूर्तिपूजा को गलत बताना शुरू किया या समाज में अपने अस्तित्व की पहचान बनाने के लिए अपनी एक नई सोच समाज को देने के नाम पर मूर्तिपूजा का विरोध किया।