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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन धर्मोपदेश श्रवण करने वाली सर्पिणी अन्य जाति के सर्प के साथ रतिक्रीड़ा कर रही है । इस दृश्यावलोकन में असमर्थ जयकुमार कमलनाल से सर्पिणी को पृथक् करने का प्रयास करता है । अन्य लोग भी अपने स्वामी का अनुकरण करते हुए कंकड़ पत्थरों से सर्पिणी को आहत कर देते हैं । अकामनिर्जरापूर्वक मरण होने से वह सर्पिणी अपने पति नागकुमार की देवी के रूप में जन्म लेती है । जयकुमार के प्रति ईर्ष्या भाव रखने वाली वह सर्पिणी उक्त वृत्तान्त अपने पति को सुनाती है । वह मूर्ख सर्प (नागकुमार देव) स्त्री के कथन पर विश्वास करता है और जयकुमार को मारने जब उसके महल में पहुँचता है तो वह देखता है कि जयकुमार अपनी रानियों को उपर्युक्त घटना सुना रहा हैं । यह सुनकर नागकुमार को वास्तविकता का ज्ञान होता है । वह स्त्रियों के कौटिल्य की निन्दा करता है । अनन्तर जयकुमार के समीप आकर सारा वृत्तान्त सत्य-सत्य कहता है । वह उनका परम भक्त बन कर उनसे आज्ञा प्राप्त कर स्वनिवेश वापिस चला जाता है। तृतीय सर्ग
राजा जयकुमार एक समय अपनी राजसभा में विराजमान थे, तभी काशी नरेश अकम्पन का दूत उनकी सभा में प्रविष्ट होता है । हस्तिनापुर नरेश दूत का यथोचित स्वागत करते हुए आगमन का कारण ज्ञात करते हैं । दूत उन्हें अपने स्वामी का सन्देश सुनाता है - कि राजा अकम्पन एवं महारानी सुप्रभा की पुत्री सुलोचना अंत्यन्त रूपवती एवं सर्वगुण सम्पन्न है । काशी नरेश उसका विवाह मन्त्रियों के निर्देशानुसार स्वयंवर-विधि से करना चाहते हैं । स्वयंवर हेतु सर्वतोभद्र नामक स्वयंवर मण्डप स्वर्ग के देव (पूर्व जन्म में राजा अकम्पन के भाई) द्वारा निर्मित किया गया है । काशी नगरी की अभूतपूर्व सज्जा की गई है। अतएव आप सुलोचना स्वयंवर में सम्मिलित होने हेतु काशी पधारने की कृपा करें । इस प्रकार दूत स्व-स्वामी का शुभ सन्देश सुनाकर मौन हो जाता है । मनोहारी वृत्तान्त सुनकर जयकुमार पुलकित हो जाते हैं । वे दूत को पारितोषिक देते हैं । तदनन्तर सुसज्जित सेना के साथ जयकुमार काशी प्रस्थान करते हैं । काशी पहुँचने पर राजा अकम्पन उनका स्वागत करते हुए ठहरने का उचित प्रबन्ध करते हैं। चतुर्थ सर्ग
काशी नरेश देश देशान्तरों के सभी राजकुमारों को सुलोचना स्वयंवर हेतु आमंत्रित करते हैं । भरत चक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीर्ति को स्वयंवर का समाचार मिलता है । अर्ककीर्ति