________________
द्वितीय अध्याय
जयोदय का कथानक एवं महाकाव्यत्व
कथानक
महाकवि ज्ञानमागर द्वारा विरचित जयोदय महाकाव्य में राजा जयकुमार एवं मुलोचना की प्रणय-कथा के माध्यम से अपरिग्रह अणुव्रत के माहात्म्य का वर्णन है' तथा धर्मसंगत अर्थ, काम तथा मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि की गई है । इस महाकाव्य में अट्ठाईस सर्ग हैं । प्रत्येक मर्ग का सारांश इस प्रकार है -- प्रथम सर्ग
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के समय हस्तिनापुर में राजा जयकुमार राज्य करते थे। वे अत्यन्त सुन्दर, विद्वान्, बुद्धिमान्, भाग्यवान्, श्रीमान्, शूरवीर एवं प्रतापी थे ! वे सदा सज्जनों का आदर एवं दुष्टों का निग्रह करते थे । वे अत्यन्त दानशील एवं परोपकारी थे । ऐसे सर्वगुण सम्पन्न भूपति जयकुमार की प्रशंसा जब राजा अकम्पन की पुत्री सुलोचना ने सुनी तो वह उनके प्रति अनुरक्त हो गई । परन्तु स्त्री-सुलभ लज्जा एवं लोकापवाद के भय से वह अपना प्रेम सन्देश उन्हें प्रेषित न कर सकी ।
नृपति जयकुमार ने भी अपने सभासदों से राजकुमारी सुलोचना के रूप-सौन्दर्य एवं गुणों के विषय में सुना तो वह उसके प्रति आकृष्ट हो गया, किन्तु अत्यन्त स्वाभिमानी होने के कारण राजा अकम्पन से पाणिग्रहण का प्रस्ताव नहीं किया । इसी समय नगर के उपवन में एक मुनि का आगमन होता है । जयकुमार उनके दर्शनार्थ पहुँचता है । प्रगाढ़ श्रद्धाभाव से उनके दर्शन-स्तवन कर आनन्दातिरेक का अनुभव करता है और विनम्रता पूर्वक उनसे उपदेश की याचना करता है, ताकि जीवन सफल हो सके । बितीय सर्ग
मुनिराज राजा जयकुमार को अनेक दृष्टान्तों द्वारा धर्मनीति एवं राजनीति का उपदेश देते हैं । मुनि द्वारा उक्त उपदेशामृत का पानकर जयकुमार रोमांचित हो जाता है। वह पुनः अत्यन्त श्रद्धा एवं विनय से मुनिराज को नमन करता है तथा उनकी आज्ञा लेकर निज प्रासाद की ओर प्रस्थान करता है । मार्ग में वह देखता है कि उसके साथ पूर्व में १. जयोदय पूर्वार्ध, ग्रन्थकर्ता का परिचय, पृष्ठ - ११-१२