SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ३७ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन . अपने मन्त्री सुमति के बिना आमन्त्रण के स्वयंवर न जाने के सुझाव को ठुकरा कर अन्य सभासदों के साथ काशी पहुँचते हैं । काशी नरेश उनकी अगवानी करते हुए उन्हें अपने प्रासाद में ठहराते हैं । स्वयंवर सभा में आमन्त्रित सभी राजकुमार हास्य विनोद करते हुए रात्रि व्यतीत करते हैं। पंचम सर्ग स्वयंवर सभा में विभिन्न देशों के राजकुमार आते हैं । राजा अकम्पन सभी का भव्य स्वागत करते हैं | वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एवं अद्भुत रूपसौन्दर्यशाली जयकुमार के स्वयंवर मण्डप में आने पर सभा जगमगा उठती है। यह देख अन्य राजकुमारों के मन में उसके प्रति प्रतिद्वन्द्विता का भाव जागरित हो जाता है। स्वयंवर सभा की विशालता देखकर राजा अकम्पन जहाँ आश्चर्यचकित होते हैं, वहीं चिन्तित भी होते हैं । वे सोचते हैं इस सभा में एक से एक राजकुमार आये हैं । इन सभी का परिचय सुलोचना को कौन दे सकेगा? स्वयंवर मण्डप के निर्माता चित्रांगद देव अपने पूर्व जन्म के भाई राजा अकम्पन के चेहरे पर विषाद की रेखाएँ देखते हैं, तो वे राजपरिचय का कार्यभार बुद्धिदेवी को सौंपते हैं । राजा अकम्पन चिन्ता मुक्त हो जाते हैं और स्वयंवर समारोह प्रारम्भ करने के लिए दुन्दुभि बजवाते हैं । दुन्दुभि सुनकर राजकुमारी सुलोचना अपनी प्रमुख सखियों के साथ विमान में बैठकर प्रासाद से चल पड़ती है । वह पहले जिनेन्द्र देव की पूजन करती है । अनन्तर स्वयंवर मण्डप में पहुँचती है । सभी राजकुमारों की दृष्टि सुलोचना पर केन्द्रित हो जाती है। पठ सर्ग . राजकुमारी सुलोचना के स्वयंवर मंण्डप में आने पर बुद्धिदेवी अपना कार्य प्रारम्भ करती है । वह सर्वप्रथम विद्याधर राजा सुनमि एवं विनमि से राजकुमारी को परिचित कराती है । इन राजाओं में सुलोचना की अरुचि जानकर उसे पृथ्वी के राजकुमारों के समीप ले जाती है । वह सम्राट् भरत के पुत्र अर्ककीर्ति, कलिंग, कांची, काबुल, अंग, बंग, सिन्धु, काश्मीर, कर्णाटक, कैरब, मालव आदि देशों से पधारे राजकुमारों के रूप सौन्दर्य, गुण एवं ऐश्वर्य का विस्तृत वर्णन करती है, पर राजकुमारी किसी की ओर आकर्षित न हो सकी। बुद्धिदेवी हस्तिनापुर नरेश जयकुमार का परिचय देती है । सुलोचना मेघेश्वर उपनामधारी
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy