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जयोदय महाकाव्य का कालावजानिक, अनान
गुणसुन्दर वृत्तान्त
यह रूपककाव्य है । इसमें राजा श्रेणिक के समय में युवावस्था में दीक्षित एक . श्रेष्ठिपुत्र का वर्णन किया गया है । कर्तव्यपथ प्रदर्शन
इसमें आचार्य श्री ने ८२ शीर्षकों के अन्तर्गत मानव के दैनिक कर्तव्यों का निरूपण किया है । ये कर्तव्य उपदेशात्मक नहीं अपितु निर्देशात्मक हैं। इन्हें कवि ने अनेक उदाहरणों द्वारा सरल सुबोध भाषा में समझाया है । “यह कृति आत्मा की उम तह की भाँति है जिसमें ज्ञान और सुख का अक्षय भण्डार भरा हुआ है । जिसे बांटने मे कभी बांटा नहीं जा सकता और पढ़ने से पूरा पढ़ा नहीं जा सकता, किया जा सकता है तो मात्र संवेदन और सुखद अनुभव । कृति के प्रत्येक सन्दर्भ में दया, वात्सल्य एवं प्रेम के स्वर मंजोये गये हैं । विखेरे गये हैं वे भावपुष्प, जिनकी सुगन्धि जनमानस में व्याप्त अज्ञान, अनाचार, एवं कुरीतियों की दुर्गन्ध समाप्त करने में समर्थ हैं ।"१
प्रस्तुत कृति में मानव के आचार-विचार का विवेचन किया गया है । ये आचार-विचार मानव को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में उसके कर्तव्य के प्रति सजग करते हैं ।
कृति में कवि की भाषा मुहावरेदार एवं अलंकारों से मंडित है जिसमे अभिव्यक्ति पैनी एवं भाव को हृदय में उतारने वाली बन गई है । निम्न उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है
“हम बाँट कर खाना नहीं जानते, सिर्फ अपना ही मतलब गांठना चाहते हैं और इस खुदगर्जी के पीछे मगरूर होकर सन्तों महन्तों की वाणी भुला बैठते हैं । इसीलिए पद-पद पर आपत्तियों का सामना करना पड़ रहा है । (पृष्ठ २०)
"मकान का पाया बहुत गहरा हो, दीवारें चौड़ी और संगीन हों, रंग-रोगन भी बहुत अच्छी तरह से किया हुआ हो और सभी बातें तथा रीति ठीक हो, परन्तु यदि ऊपर छत न हो तो सभी बेकार है । वैसे ही सदाचार के बिना मनुष्य में बल वीर्यादि सभी बातें होकर निकम्मी हो जाती हैं । देखो, रावण बहुत पराक्रमी था । उसके शारीरिक बल के आगे सभी कायल थे, फिर भी वह आज निन्दा का पात्र बना हुआ है; क्योंकि रावण के जीवन में दुराचार की बदबू ने घर कर लिया था।" (पृष्ठ-२४)
१. कर्तव्यपथ प्रदर्शन : प्रकाशकीय प्रस्तुति पृष्ठ - १