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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन प्रवचनसार प्रतिरूपक जैसा कि शीर्षक से सुविदित है, इसमें जिनप्रवचन का सार संगृहीत किया गया है। प्रवचनसार ग्रन्थ श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्रणीत है । इसकी मूल गाथाओं के भाव को ग्रहण कर महाकवि आचार्य ज्ञानसागरजी ने संस्कृत के अनुष्टुप् श्लोकों तथा हिन्दी पद्यों में निबद्ध किया है एवं गद्य में सारांश भी लिखा है । इसमें मूल ग्रन्थ की गाथाओं का केवल छायानुवाद नहीं है किन्तु उनके मार्मिक अभिप्राय को भी अनुष्टुप् जैसे छोटे ..कों में निबद्ध कर गागर में सागर भरने का प्रयत्न किया गया है । साथ ही श्लोक के भाव को स्पष्ट करने के लिए हिन्दी भाषा में पद्य रचकर उसकी पूर्ति की गई है। इस ग्रन्थ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंश है “सारांश" । संस्कृत में साहित्यिक काव्य ग्रन्थों की रचना करने वाले इस ग्रन्थकर्ता की तत्सम पदावली को यहाँ ढूँढना श्रमसाध्य है। हिन्दी गद्य में तद्भव शब्दावली का ही प्राधान्य है । “गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति" इस रूप में भी इस ग्रन्थ का गद्य आदर्श, सरल, सर्वथा निर्दोष एवं सरस अर्थ का प्रस्फुटन करने वाला है। आचार्य श्री ने गद्य में सूत्रशैली अपनाई है । विवेचन करने के अनन्तर अनुच्छेद के अन्त में सम्पूर्ण विवेचन का सार सूत्रबद्ध कर दिया है। आगम की बात को समझाने के लिए जो दृष्टान्त, उदाहरण और उत्प्रेक्षायें दी गई हैं, वे मानव के व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित हैं; अतः पाठक को कहीं भी गरिष्ठता का बोझ वहन नहीं करना पड़ता । जैसे - आत्मा और कर्मों का अनादिकाल से सम्बन्ध है । इनमें आत्मा चेतन और कर्म अचेतन हैं । दोनों का स्वरूप पृथक् है । अतः उनमें बंध नहीं हो सकता, फिर भी आत्मा बँधा हुआ क्यों है ? इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री कहते हैं "जैसे एक बच्चा किसी खिलौने को देखकर उसे अपना मानकर हाथ में पकड़े रहता है, उसके टूट जाने पर वह रोने लगता है, दुःखी होता है; उसी प्रकार आत्मा परपदार्थों को अपने भावों में अपनाये हुए हैं, अतः अपने भावों के द्वारा उनसे बँधा हुआ है।" इस उदाहरण को पढ़कर मन में किसी भी प्रकार की शंका नहीं रहती। ग्रन्थकार ने विषय वस्तु को स्पष्ट करने के लिए अनेक शंकायें उठाकर उत्तर के रूप में समाधान किया है | प्रश्नोत्तर के रूप में लिखित इस गद्य को पढ़ने से ऐसी अनुभूति होती है कि आचार्य श्री हमारे सन्मुख विराजमान हैं और अल्पज्ञों की शंका - समाधान कर रहे हैं।
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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