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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
एवं महान् तपस्वी का त्याग निरर्थक माना जाता है । इस कृति में सम्यक्त्व का विवेचन काव्यमय माधुर्य से हुआ है ।
ग्रन्थ का प्रारम्भ सम्यक्त्व की आराधना से हुआ है । सम्यक्त्व-रूपी सूर्य के उदय होने पर, अन्धकार फैलानेवाली मिथ्यात्वरूपी अज्ञानरात्रि स्वयमेव विलीन हो जाती है - सम्यक्त्वसूर्योदय भूभृतेऽहमधिश्रितोऽस्मि प्रणति सदैव ।
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यतः प्रलीयेत तमो विधात्री भयङ्करा सा जगतोऽथ रात्रिः ॥ १ ॥ संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है पर सुखी बनने का उपाय नहीं जानता । क्योंकि उसे यह ज्ञात नहीं है कि सुख मेरी आत्मा का गुण है तथा वह मुझमें ही है । वह बाह्य विषयों में सुख मानकर उनमें झंपापात लेता है । यही इसकी भूल है । यही मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व के कारण ही प्राणी दुःखी है । मिथ्यात्व का दूर होना ही सम्यक्त्व है आत्मीयं सुखमन्यजातमिति या वृत्तिः परत्रात्मनस्तन्मिथ्यात्वमकप्रदं निगदितं मुञ्चेदिदानीं जनः । आत्मन्येव सुखं ममेत्यनुवदन्बाह्यानिवृत्तो यदात्मन्यात्मा विलगत्यहो विजयतां सम्यक्त्वमेतत्सदा ॥ १००॥ सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्वार्थ का श्रद्धानी होता है । वह संसार में उसी प्रकार रहता है
जैसे जल में कमल । वह चर्म के लिए नहीं वरन् धर्म के लिए उत्कण्ठित रहता है । उसकी भावना निरन्तर दूसरों को सुखी बनाने की रहती है । उसकी दृष्टि आत्मद्रव्य पर होती है, पर्याय पर नहीं ।
सम्यग्दृष्टि निरन्तर तत्त्व के अभ्यास में रत रहता है। जिससे प्रशम, संवेग, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य गुण उसमें विकसित हो जाते हैं । उसके यही भाव क्रमशः आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नामक ध्यान में परिवर्तित हो जाते हैं । ध्यानादहो धर्ममयोरुधाम्न उदेति वाऽऽज्ञाविचयादिनाम्नः ।
सम्यग्दृशो भावचतुष्कमेतत्पर्येत्यमीषु स्फुटमस्यचेतः ॥ ५२॥
जब सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का चारित्र पूर्णरूपेण वीतरागता से युक्त होता है तब वह यथाख्यातचारित्र कहलाता है । उसका श्रुतज्ञान भी भावश्रुतज्ञान में परिणत हो जाता है - भावश्रुतज्ञानमतः परन्तु भवेद्यथाख्यातचरित्रतन्तु ।
श्रद्धानमेवं दृढमात्मनस्तु गुणत्रयेऽतः परमत्वमस्तु ॥८३॥
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सम्यग्दृष्टि यथाख्यात चारित्र द्वारा कर्मों का क्षय कर सच्चिदानन्द बन जाता है इस प्रकार कवि ने दर्शन के गहन सिद्धान्तों को सरल भाषा द्वारा सर्व-साधारण के लिए बोधगम्य बना दिया है ।