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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन नाभिराय हुए । जिनकी रानी मरुदेवी से पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है । इस पुत्र का नाम वे ऋषभदेव रखते हैं । कर्मभूमि का आरम्भ होने पर यही राजा ऋषभदेव प्रजा को असि, मसि, कृषि आदि षट्कर्मों की शिक्षा देते हैं । इस सर्ग में गृहस्थ धर्म एवं मुनिधर्म का विवेचन भी हुआ है।
एकोनविंश सर्ग में कवि ने स्याद्वाद, सप्तभंग, अनेकान्तं, षड्द्रव्यों के स्वरूप, जीवों के भेद-प्रभेद आदि गूढ़ दार्शनिक तत्वों का सरल भाषा में विवेचन कर उसे हृदयंगम बना दिया है।
विंशतितम सर्ग में अनेक युक्तियों द्वारा अतीन्द्रिय ज्ञान का अस्तित्व एवं उसके धारक सर्वज्ञ की सिद्धि की गई है ।
शरदऋतु का वर्णन एवं कार्तिक कृष्णा चतुर्दर्शी को रात्रि के अन्तिम प्रहर में भगवान् महावीर को मोक्ष प्राप्त होना एकविंश सर्ग का पतिपाद्य है। . . अन्तिम द्वाविंश सर्ग में बतलाया गया है कि महावीर के निर्वाण के अनन्तर जैनधर्म
की स्थिति पूर्ववत् नहीं रहती । उसमें अनेक भेद -प्रभेद बनने लगते हैं । जैन धर्म का ह्रास होने लगता है जिससे कवि को हार्दिक दुःख पहुँचता है । अन्त में कवि अपनी लघुता निवेदित करते हुए मंगलकामना करते हैं --
नीति:रोदयस्येयं स्फुरद्रीतिश्च देहिने ।
वर्धतां क्षेममारोग्यं वात्सल्यं श्रद्धया जिने ॥ २२/४३ ॥ प्रस्तुत महाकाव्य भगवान महावीर के ब्रह्मचर्य एवं तपस्या पर आधारित है । कवि ने काव्य के माध्यम से ब्रह्मचर्य एवं चारित्रिक दृढ़ता की शिक्षा दी है । काव्यशास्त्रीय दृष्टि से यह उच्चकोटि का महाकाव्य है । इस काव्य का नायक वीर, अतिवीर ही नहीं, महावीर है । काव्य का महदुद्देश्य निःश्रेयस् की प्राप्ति है । कवि ने विभिन्न रसों एवं प्रकृति आदि का मनोहारी चित्रण किया है । जीवन के विविध पक्षों का उद्घाटन कर महच्चारित्र की प्रतिष्ठा की है।
इस प्रकार यह महाकाव्य तो है ही, इसमें जैन इतिहास और पुरातत्व के दर्शन भी होते हैं । धर्म के स्वरूप का वर्णन होने से यह धर्मशास्त्र भी है । स्याद्वाद और अनेकान्त का विवेचन होने से न्यायशास्त्र है । अनेक शब्दों का संग्रह होने से यह शब्दकोश भी है ।
संक्षेप में इस काव्य का अध्ययन करने पर महावीर चरित्र के साथ जैनधर्म और दर्शन का परिचय भी प्राप्त होता है । काव्यसुधा का आस्वादन तो सहज होता ही है ।