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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
द्वादश सर्ग में ग्रीष्म ऋतु का आलंकारिक भाषा में मनोरम चित्रण किया गया है। इसी ऋतु वैशाख शुक्ला 'दशमी के दिन मुनि महावीर को कैवल्यज्ञान प्राप्त होता है । इसके प्रभाव से दस अतिशय प्रकट होते हैं । इन्द्रादि देवगण स्वर्ग से आते हैं और समवशरण सभामण्डप का निर्माण करते हैं ।
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त्रयोदशसर्ग में समवशरण सभा की रचना का विशद चित्रण है। तीर्थंकर भगवान् समवशरण के मध्य गन्धकुटी में कमलासन से चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्ष में विराजते हैं । वहाँ आठ प्रातिहार्य और चौदह देवकृत अतिशय प्रकट होते हैं । वेद-वेदांग का ज्ञाता इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मण नगरनिवासियों एवं स्वर्ग के देवगणों को समवशरण सभा में जाते देखता है । वह भी वहाँ पहुँचता है और सभा देखकर आश्चर्यचकित हो जाता है । तीर्थंकर के समीप आते ही गौतम का अहंकार नष्ट होता है। वह उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लेता है । इसी समय उसके निमित्त से भगवान् की दिव्यदेशना प्रारम्भ होती है । भगवान् सत्य, अहिंसा, त्याग आदि का उपदेश देते हैं ।
चतुर्दशसर्ग में बतलाया गया है कि इन्द्रभूति गौतम के सभी शिष्य तीर्थंकर महावीर का शिष्यत्व अंगीकार करते हैं । इस सर्ग में प्रधानतया तीर्थंकर के ग्यारह गणधर, उनके जन्मस्थान, माता-पिता, परिवार का वर्णन किया गया है। भगवान् महावीर के धर्मोपदेश से सभी जीव अपना बैर विरोध भूलकर हित चिन्तन में रत होते हैं ।
इन्द्रभूति गौतम गणधर तीर्थंकर की वाणी को पूर्णरूपेण ग्रहणकर द्वादशांग रूप में विभाजित करते हैं । मागध जाति के देव उस वाणी को प्रसारित करते । भगवान् महावीर के उपदेशों को समझ कर प्रायः सभी जैनधर्म स्वीकार कर लेते सर्ग का विवेच्य है ।
। यह पंचदश
षोडश सर्ग में महावीर के लोक कल्याणकारी उपदेशों अहिंसा, सत्य, साम्यवाद, स्याद्वाद आदि का हृदयस्पर्शी वर्णन हुआ है।
सप्तदश सर्ग में मानवता की व्याख्या की गई है। "मानव आत्मोन्नति किस प्रकार कर सकता है,” इस विषय का सुन्दर विवेचन किया गया है।
अष्टादशसर्ग में कवि ने सतयुग का वैशिष्ट्य निरूपित किया है। अनन्तर समय की शक्ति की बलवत्ता प्रतिपादित की गयी है। समय के प्रभाव से सतयुग त्रेतायुग में परिणत होता है । इस समय भरत क्षेत्र में चौदह कुलकर जन्म लेते हैं। इनमें अन्तिम कुलकर