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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन इसलिए कवि ने स्वयं इस काव्य को “त्रिविष्टपं काव्यमुपैम्यहन्तुं" कह कर साक्षात् स्वर्ग माना है। सुदर्शनोदय महाकाव्य
कवि भूरामलजी द्वारा रचित इस काव्य में ब्रह्मचर्य के लिए प्रसिद्ध सेठ सुदर्शन के चरित्र का वर्णन है । इस काव्य में नौ सर्ग हैं । काव्य की कथावस्तु इस प्रकार है -
अंगदेश की चम्पापुरी नगरी में धात्रीवाहन नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम अभयमती था । वह अत्यन्त रूपवती किन्तु कुटिल स्वभाव की थी । इसी नगर में श्रेष्ठिवर्य बृषभदास निवास करता था । उसकी पत्नी का नाम जिनमति था । वह सुशील एवं रूपवती थी । एक बार रात्रि के अन्तिम प्रहर में वह पाँच स्वप्न देखती है - जिनमें उसे क्रमशः सुमेरु पर्वत, कल्पवृक्ष, मोतियों से परिपूर्ण समुद्र, निधूम अग्नि एवं आकाश में बिहार करता हुआ विमान दिखाई देता है । प्रातःकाल वह अपने पति के साथ जिनमन्दिर जाती है । वहाँ विराजमान मुनि से अपने स्वप्नों का अभिप्राय पूछती है । मुनिराज वृषभदास को बतलाते हैं कि तुम्हारी भार्या होनहार पुत्र को जन्म देगी । ये स्वप्न उस पुत्र के गुणधर्मों का संकेत करते हैं । तुम्हारा पुत्र सुमेरु के समान अति धीर होगा, कल्पवृक्ष के तुल्य दानवीर, समुद्र जैसा गुणरत्नों का भण्डार तथा विमान के समान स्वर्गवासी देवों का बल्लभ (प्रिय) होगा । अन्त में निर्धूम अग्नि की तरह कर्मरूप ईंधन को भस्मसात् कर मोक्ष प्राप्त करेगा।
मुनिराज की उत्तम वाणी सुनकर वे अति प्रसन्न होते हैं । नव मास व्यतीत होने पर जिनमति के उत्तम लक्षणों से युक्त पुत्र उत्पन्न होता है । माता-पिता पुत्र का नाम सुदर्शन रखते हैं । उसे सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती है ।
- इसी नगर में “सागरदत्त" नामक वैश्यपति रहता था। उसके अति सुन्दर मनोरमा नाम की पुत्री थी । सुदर्शन और मनोरमा एक दूसरे को देखते हैं और अनुरक्त हो जाते हैं। उनके माता -पिता दोनों का विवाह कर देते हैं । इसके बाद बृषभदास जिनदीक्षा धारण कर तप करने लगते हैं।
एक बार राजपुरोहित ब्राह्मण की पत्नी कपिला राजमार्ग से जाते हुए सुदर्शन को देखकर उस पर मोहित हो जाती है । वह दूती के द्वारा पति के अस्वस्थ होने के बहाने सुदर्शन को घर बुलाती है । उससे अपनी कामवासना पूर्ण करने के लिए कहती है । तब चतुर सुदर्शन स्वयं को नपुंसक बता कर उससे छुटकारा प्राप्त करता है।