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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
समाधिमरण
ज्ञान एवं तप में युवा आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का शरीर वृद्धावस्था के कारण क्रमशः क्षीण होने लगा । गठिया के कारण सभी जोड़ों में अपार पीड़ा होने लगी । इस स्थिति में उन्होंने स्वयं को आचार्य पद का निर्वाह करने में असमर्थ पाया और जैनागम के नियमानुसार आचार्य पद का परित्याग कर सल्लेखना व्रत ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय किया। अपने संकल्प को कार्यरूप में परिणति करने हेतु उन्होंने नसीराबाद में मगसिर कृष्ण दूज वि. सं. २०२९, बुधवार, २२ नवम्बर १९७२ को लगभग २५००० जनसमुदाय के समक्ष अपने योग्यतम शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी से निवेदन किया- "यह नश्वर शरीर धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है, मैं अब आचार्य पद छोड़कर पूर्णरूपेण आत्मकल्याण में लगना चाहता हूँ। जैनागम के अनुसार ऐसा करना आवश्यक और उचित है, अतः मैं अपना आचार्य पद तुम्हें सौंपता हूँ ।"
आचार्य श्री के इन शब्दों की सहजता एवं सरलता तथा उनके असीमित मार्दव गुणसे मुनि श्री विद्यासागर जी द्रवित हो उठे । तब आचार्य श्री ने उन्हें अपने कर्त्तव्य, गुरु-सेवा, भक्ति और आगम की आज्ञा का स्मरण कराकर सुस्थिर किया । उच्चासन का त्याग कर उस पर मुनि श्री विद्यासागर जी को विराजित किया । शास्त्रोक्त विधि से आचार्य पद प्रदान करने की प्रक्रिया सम्पन्न की ।
अनन्तर स्वयं नीचे के आसन पर बैठ गये। उनकी मोह एवं मानमर्दन की अद्भुत पराकाष्ठा चरम सीमा पर पहुँच गयी । अब मुनि श्री ज्ञानसागर जी ने अपने आचार्य श्री विद्यासागर जी से अत्यन्त विनयपूर्वक निवेदन किया
"भो गुरुदेव ! कृपां कुरु । '
हे गुरुदेव ! मैं आपकी सेवा में समाधि ग्रहण करना चाहता हूँ । मुझ पर अनुग्रह करें ।" आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अत्यन्त श्रद्धाविह्वल अवस्था में उनको सल्लेखना व्रत ग्रहण कराया । मुनि श्री ज्ञानसागर जी सल्लेखना व्रत का पालन करने के लिए क्रमशः अन्न, फलों के रस एवं जल का परित्याग करने लगे । २८ मई १९७३ को आहार का पूर्ण रूपेण त्याग कर दिया । वे पूर्ण निराकुल होकर समता भाव से तत्त्व चिन्तन करते हुए आत्मरमण में लीन रहते ! आचार्य श्री विद्यासागर जी, ऐलक सन्मतिसागर जी एवं क्षुल्लक स्वरूपानन्दजी
१. पुष्पांजलि पृष्ठ- ८