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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन अपनी जन्मभूमि का निर्देश करने के लिए उन्होंने महाकाव्य के अन्तिम अट्ठाईसवें सर्ग में पाँच श्लोक लिखे हैं जिनमें पाँच कामनाएँ की गई हैं -
जयतात्सुनिबन्धोऽयं पुष्यन्सजिगलं चिरम् । राष्ट्र प्रवर्ततामिज्यां तन्वनिधिमुतुरम् ।। गणसेवी नृपो जातं राष्ट्रस्नेहो वृषणाम् । वहनिर्णयमीशाली ग्राम्यदोषातिगः समः॥ स्थिरत्वं मनुजाश्चेतः श्रीमतोऽवन्तु सूक्तिमत्। चमत्कुर्याज्जगन्ने तुर्भुक्नेषु वृषो निजः ॥ नित्यमभ्येयं संसर्ग महतां शुभकर्मसु । तता धीरस्थाव वितश्री - भूपाच्छी ततत्वरा ॥ मनागपि न सञ्चारः कृशेषु मम धीमतः।
प्रसादादहतां शम्बधोरणी स्यादिति स्वयम् ॥ २८/१०१-१०५ इन श्लोकों के प्रत्येक चरण के प्रथम एवं अन्तिम अक्षरों के योग से निम्न वाक्य बनता है जो कवि के जन्मस्थान एवं पिता के नाम की सूचना देता है -
"जयपुरराज्यान्तर्गतराणावलीग्रामस्थितनीमचतुर्भुजनिगमसुतत्रीभूरामरकृतप्रबन्योऽयम्।
कवि का भूरामल नाम उनके गौरवर्ण एवं लुनाई को देखते हुए रखा गया था । उनका एक और नाम था "शान्तिकुमार" जो संभवतः राशि के आधार पर रखा गया था।'
__ श्री भूरामलजी पाँच भाई थे। बड़े भाई का नाम था छगनलाल । तीन भाई उनसे छोटे थे - गंगाप्रसाद, गौरीलाल और देवीदत्ता' शिक्षा
. शैशवकाल से ही भूरामल की अध्ययन में तीव्र रुचि थी । उन्होंने अपने जन्म स्थल में ही कुचामनवासी पं० जिनेश्वरदासजी से प्रारम्भिक, प्राथमिक, लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा प्राप्त की, पर गाँव में उच्च शिक्षा प्राप्त न हो सकी । सन् १९०२ [ विक्रम संवत्
१. जयोदय उत्तरार्ध, १५-१०१ २. जैनमित्र (साप्ताहिक), मुनि श्री ज्ञानसागर जी का संकित परिचय, २८ - ४ - ६९, पृट-२५३