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व्यक्तित्व
प्रथम अध्याय
महाकवि भूरामलजी का व्यक्तित्व एवं सर्जना
जयोदय महाकाव्य बाल ब्रह्मचारी महाकवि पंडित भूरामलजी की यशस्वी लेखनी से प्रसूत हुआ है, जो आगे चल कर जैन मुनि अवस्था में आचार्य ज्ञानसागर जी के नाम से प्रसिद्ध हुए । श्री भूरामलजी एक ऐसे महाकवि हैं जिन्होंने निरन्तर आत्मसाधना की ओर अग्रसर रहते हुए एक नहीं, अनेक महाकाव्यों का सृजन किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मसाधक योगी के लिए काव्य भी आत्मसाधना का अंग बन गया है और सम्पूर्ण जीवन काव्यमय हो गया है । कवि भूरामलजी के व्यक्तित्व का बहिरंग चित्र एक प्रत्यक्षदर्शी के निम्न शब्दों में दृश्यमान हो उठा है -
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गौरवर्ण, क्षीण - शरीर, चौड़ा ललाट, भीतर तक झाँकती आँखें, हित-मित-प्रिय धीमा बोल, संयमित सधी चाल, सतत् शान्तमुद्रा, यही था उनका अंगन्यास ।'
आत्मा में वीतरागता का अवतरण होने के बाद उनके अंतरंग की छबि वक्ता ने निम्न विशेषणों में मूर्तित कर दी है -
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विषयाशा- विरक्त, अपरिग्रही, ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन, करुणा-सागर, परदुःखकातर, विद्यारसिक, कविहृदय, प्रवचनपटु, शान्तस्वभावी, निस्पृही, समता, विनय, धैर्य और सहिष्णुता की साकार मूर्ति, भद्रपरिणामी, साधना में कठोर, वात्सल्य में नवनीत से भी कोमल, एवं सरल प्रकृति तेजस्वी महात्मा बस यही था उनका अन्तर का आभास । २
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ऐसे व्यक्तित्व के धनी योगी का जन्म राजस्थान में जयपुर के समीप सीकर जिले के राणोली ग्राम में हुआ था । उनके पिता का नाम श्री चतुर्भुज एवं माता का नाम श्रीमती घृतवरी देवी था । कवि ने स्वयं जयोदय महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग की स्वोपज्ञ टीका के अनन्तर निम्न शब्दों में अपने तथा अपने माता पिता के नाम का उल्लेख किया है।
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श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलोपाकयं, वाणीभूषणवर्जिनं घृतवरी देवी च यं भीचयम् ।
१. आचार्य ज्ञानसागर का बारहवाँ समाधि दिवस, २. वही, पृष्ठ ४
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