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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन कवि ने लोकोक्तियों और सूक्तियों का यथास्थान प्रयोगकर अभिव्यक्ति में चार चाँद लगा दिये हैं। इनके द्वारा कवि ने सिद्धान्तों की पुष्टि, जीवन और जगत की घटनाओं का समाधान तथा उपदेश और आचरणविशेष के औचित्य की सिद्धिकर अभिव्यक्ति में प्राण फूंके हैं | लोकोक्तियों ने अनेकत्र तथ्यों के मर्म को उभारकर उन्हें गहन और तीक्ष्ण बना दिया है, जिससे कथन में मर्मस्पर्शिता आ गई है । पात्रों के चारित्रिक वैशिष्ट्य की अभिव्यक्ति में सूक्तियाँ बड़ी कारगर सिद्ध हुई हैं । कहीं प्रमंगवश नीति-विशेष के प्रतिपादन हेतु मूक्तियों का प्रयोग किया गया है । इन सभी सन्दर्भो में लोकोक्तियों ओर सूक्तियों ने अभिव्यक्ति के रमणीय बनाने का चामत्कारिक कार्य किया है । रमात्मकता काव्य का प्राण है | रमानुभूति के माध्यम से ही मामाजिकों के कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश हृदयंगम कराया जा सकता है । जयोदयकार इस तथ्यों में पूरी तरह अवगत रहे हैं । इसीलिए उन्होंने अपने काव्य में शृंगार से लेकर शान्त तक मभी ग्यो की मनोहारी व्यंजना की है और विभिन्न स्थायिभावों के उदबोधन द्वारा महदयों को ग्मविभोर करते हुए धर्मपूर्वक अर्थ और काम तथा अन्ततः मोक्ष की सिद्धि के लिए प्रेरित किया है। शान्तरस जयोदय महाकाव्य का अंगीरस है, क्योंकि प्रस्तुत महाकाव्य की रचना का मूल उद्देश्य संसार की असारता और दुःखमयता तथा मोक्ष की सारभूतता एवं सुखमयता की ओर ध्यान आकृष्टकर मनुष्य को मोक्ष की ओर उन्मुख करना है। किन्तु कवि ने इस उद्देश्य की सिद्धि सरसतापूर्वक कान्ता-सम्मित रीति से करनी चाही है. इसलिए शृंगारादि लौकिकरम से काव्य में मधुरता की पुट दी है, किन्तु वे सव शान्तरस के दास हैं, स्वामी तो शान्तरम ही है। - रस के अतिरिक्त रसाभास, भाव, भावोदय, भावसन्धि, और भावशवलता का उन्मीलन भी प्रस्तुत महाकाव्य में किया गया है । भाव के अन्तर्गत देवविषयक एवं गुरु विषयक रति की अजस्त्र धाराओं से जयोदय प्लावित है। वर्णविन्यासयक्रता में गुण, रीति और शब्दालंकारों का अन्तर्भाव है । इसके द्वारा महाकवि ने विविध प्रभावों की सृष्टि की है । नाद सौन्दर्य एवं लयात्मक श्रुति माधुर्य की उत्पत्ति, माधुर्य एवं ओज गुणों की व्यंजना द्वारा रसोत्कर्ष, वस्तु की कोमलता. कठोरता आदि के द्योतन एवं भावों को घनीभूत करने में कवि ने वर्गों का औचित्यपूर्ण विन्यास किया है । वर्णविन्यासवक्रता के निम्न प्रकार प्रस्तुत महाकाव्य में प्रयुक्त किये गये हैं - छेकानुप्राम. वृत्त्यनुप्रास, श्रुत्यनुप्रास, अन्त्यानुप्रास, यमक तथा माधुर्य व्यंजक एवं ओजोव्यंजक वर्णविन्यास। .. काव्य और नाट्य का विषय मानव-चरित ही हुआ करता है । उसी के माध्यम से : कवि रसव्यंजना करता है । इसीलिये आचार्य भरत ने कहा है "मैंने नाना भावों से समन्धित
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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