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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन जयोदय में जिन प्रतीकों का प्रयोग किया गया है वे प्रकृति, इतिहास, पुराण तथा प्राणिवर्ग से लिये गये हैं। प्रतीक - विधान द्वारा वस्तु और भावों का अमूर्त एवं सूक्ष्म स्वरूप हृदयंगम तथा हृदयस्पर्शी बन पड़ा है, अभिव्यक्ति आह्लादक तो बनी ही है । २२० 1 कवि का अलंकार विन्यास अपूर्व है । अर्थालंकारों में महाकवि ने उपमा, रूपक, उठप्रेक्षा, अपह्नुति, ससन्देह, समासोक्ति, व्यतिरेक, भ्रान्तिमान्, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, विभावना, विशेषोक्ति, विरोधाभास एवं दीपक का आश्रय लिया है। वस्तु की स्वाभाविक रमणीयता, उत्कृष्टता एवं विशिष्टता, मनोभावों की कोमलता तथा उग्रता एवं चारित्रिक वैशिष्ट्य को चारुत्वमयी अभिव्यक्ति देने के लिये उपमा को माध्यम बनाया गया है । रूपक द्वारा वस्तु के सौन्दर्य, भावातिरेक तथा अमूर्त तत्त्वों के अतीन्द्रिय स्वरूप का मानस साक्षात्कार कराया है । उत्प्रेक्षा के प्रयोग से भावात्मकता एवं चित्रात्मकता की सृष्टि हुई है तथा चरित्र एवं वस्तु वर्णन में प्रभावोत्पादकता आई है। अपह्नुति, ससन्देह एवं व्यतिरेक ने वस्तु के सौन्दर्यातिशय तथा लोकोत्तरता की प्रतीति में हाथ बटाया है । समासोक्ति शृंगाररस की व्यंजना में सहायक है । भ्रान्तिमान् अलंकार वस्तु के गुणातिशय की व्यंजना में अग्रणी रहा है। कार्य के औचित्य - अनौचित्य के स्तर को निदर्शना ने भली भाँति उन्मीलित किया है । अर्थान्तरन्यास ने मनोवैज्ञानिक, धार्मिक एवं नैतिक तथ्यों के बल पर मानवीय आचरण एवं कर्त्तव्य विशेष के औचित्य की सिद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके द्वारा जीवन की सफलता के लिए आवश्यक निर्देश देने का प्रयोजन भी सिद्ध किया गया है । कथन के औचित्य की सिद्धि, उसके स्पष्टीकरण तथा भावातिरेक की व्यंजना में दृष्टान्त एवं प्रतिवस्तूपमा ने चमत्कार दिखाया है । वस्तु के गुणवैशिष्ट्य की व्यंजना में विभावना तथा वस्तु के उत्कर्षादि के द्योतन में विरोधाभास का औचित्यपूर्ण प्रयोग किया गया है । दीपक के द्वारा महाकवि ने स्त्री सौन्दर्य की अत्यन्त प्रभावशालिता तथा पुरुषों के चित्त की नितान्त दुर्बलता के प्रकाशन में वचनातीत सफलता पायी है । बिम्ब योजना में भी सन्तकवि सिद्धहस्त हैं । कवि ने ऐन्द्रिय संवेदनाश्रित बिम्बों में स्पर्श, दृष्टि, श्रवण तथा स्वाद इन्द्रियों से सम्बन्धित बिम्बों की योजना की है । अभिव्यक्ति-विधा के आधार पर जयोदयगत बिम्बों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - अलंकाराश्रित, लक्षणाश्रित, मुहावराश्रित तथा लोकोक्ति-आश्रित । भाषिक अवयवों की दृष्टि से उनमें वाक्याश्रित, संज्ञाश्रित, विशेषणाश्रित, एवं क्रियाश्रित भेद दृष्टिगोचर होता है । कवि ने चेतन-अचेतन तत्त्वों की इन्द्रियगोचर अवस्थाओं के वर्णन द्वारा उनका बिम्ब ( मानसिक चित्र) निर्मित करते हुए एक ओर उनकी प्रत्यक्षवत् अनुभूति कराई है, दूसरी ओर सादृश्यादि सम्बन्ध के आधार पर प्रस्तुत वस्तु या पात्र की अतीन्द्रिय और सूक्ष्म अवस्था, गुण या भाव को हृदयंगम बनाया है। अभिव्यंजना की इस शैली ने काव्य रोचकता भर दी है।
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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