SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनशीलन इन उदाहरणों में पदान्त अनुप्रास है । तथा केशः काशस्तबकविकासः कायः प्रकटितकरमविलासः । चक्षुर्दग्धवराटककल्पं त्यजति न केतः काममनल्पम् ॥' अथवा अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥ इन दोनों श्लोकों में पादान्त अनुप्रास है। लाटानुप्रास भी अनुप्रास का एक भेद हैं किन्तु उसमें वर्णों की आवृत्ति न होकर पदों की आवृत्ति होती है और अभिव्यंजना की दृष्टि से उसमें वर्णों का कोई चमत्कार नहीं होता, ' इसलिए लाटानुप्रास में वर्णविन्यासवक्रता का प्रायः अभाव होता है । यमक सार्थक वर्णसमुदाय की भिन्न अर्थ में आवृत्ति, निरर्थक वर्णसमुदाय की अर्थपूर्ण वर्णसमुदाय के रूप में आवृत्ति, अर्थरहित वर्णसमुदाय की अर्थयुक्त वर्णसमुदाय के रूप में आवृत्ति तथा अर्थरहित वर्णसमुदाय की अर्थरहित वर्णसमुदाय के रूप में आवृत्ति यमक कहलाती है । आवार्य कुन्तक के अनुसार इसे प्रसादगुणयुक्त अर्थात् शीघ्र ही अर्थ का बोध करानेवाला, श्रुतिपेशल (अकठोरशब्द विरचित) तथा औचित्ययुक्त (प्रस्तुत वस्तु की शोभा बढ़ाने वाला) होना चाहिए । इसमें श्रुति माधुर्य तथा लयात्मकता का ही गुण रहता है | इसलिए यह वर्णविन्यासवक्रता का ही एक रूप है। उदाहरण : "नवपलाश-पलाशवनं पुरः फुटपराग-परागत-पङ्जम् । मृदुल-तान्त-लतान्तमलोकयत् स सुरमिं सुरभि सुमनोभरैः ॥"" - १. साहित्यदर्पण, १०/६ २. "शब्दस्तु लाटानुप्रासो भेदे तात्पर्यमात्रतः" । "पदानां सः" | काव्यप्रकाश ९/८१-८२. ३. समानवर्णमन्यार्थे प्रसादि श्रुतिपेशलम् । औचित्ययुक्तमाधादिनियतस्थानशोभियत् ।। यमकं नाम कोऽप्यस्याः प्रकारः परिदृश्यते । स तु शोभान्तराभावादिह नाति प्रतन्यते । - वक्रोक्तिजीवित, २/६-७ . ४. साहित्यदर्पण, १०/८
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy