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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
१८७ इसलिए कवि ने भयानक सिंह के भयावह निवास का वर्णन करते समय उसी के योग्य त, प, व, र, ह एवं ण आदि परुण वर्णों को पुनः पुनः आवृत्त किया है।
मम्मट, साहित्यदर्पणकार आदि काव्यशास्त्रियों ने माधुर्यादि गुणों का वर्णन अनुप्रास के प्रकरण में न कर पृथक् से किया है । इससे तथा उनके प्रतिपादन से स्पष्ट होता है कि माधुर्यादि की व्यंजना के लिए उपयुक्त वर्णों की आवृत्ति अनिवार्य नहीं है, उस प्रकार के विभिन्न वर्गों के प्रयोग से भी माधुर्यादि की व्यंजना होती है।
___साहित्यदर्पणकार ने श्रुत्यनुप्रास एवं अन्त्यानुप्रास का भी वर्णन किया है जिनका स्वरूप इस प्रकार है :(५) पुत्रमुगास
जिन व्यंजनों का उच्चारण स्थान समान होता है, उनके प्रयोग से उच्चारण स्थान की दृष्टि से जो व्यंजन साम्ब उत्पन्न होता है; उसे श्रुत्यनुप्रास कहते हैं । वह सहृदयों को अतीव श्रुतिसुखोत्पादक होता है।' यथा -
पृथा दग्ध मनसिचं जीवयन्ति दृशैव याः।
विकास जमिनीस्ताः स्तुमो वामलोचनाः ॥ २ यहाँ "जीवयन्ति", "याः" तथा" "जयिनीः" जकार, यकार का उच्चारण स्थान तालु की समानता के कारण साम्य है । (१) अन्यान्यास
पूर्वपद वा पाव के अन्त में जैसा अनुस्वार-विसर्ग स्वरयुक्त संयुक्त या असंयुक्त व्यंजन आता है, उसकी उत्तर पद या पाद के अन्त में आवृत्ति अन्त्यानुप्रास कहलाती है। इससे काव्य में लबालकताजन्य श्रुतिमाधुर्य उत्पन्न होता है । यथा -
"मर हसन्तः पुलकं वहन्तः तथा
"पीरसमीरे यमुनातीरे"
तथा
"सुजतां सुफलां मलयजशीतला सस्य श्यामलां मातरम् ।"
१. साहित्यवर्पण · १०/५ तथा वृत्ति २. बम, १०/५ ३. वही, १०/६