________________
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
११ १. वर्णों की आवृत्ति बलात् नहीं की जानी चाहिए । जहाँ उपयुक्त हो, प्रस्तुत
विषय के औचित्य की हामि न हो, अपितु उसकी शोभा में वृद्धि हो, वहीं
की जानी चाहिए। २. अपेशल (कठोर) वर्गों की भी आवृत्ति नहीं होनी चाहिए जैसे -
"शीर्माणाधिपाणी" इत्यादि (मयूर शतक, ६) पद्य में ण-ण, घ्र-ध्र, न-न आदि श्रुति-कटु वर्णों का पुनः पुनः विन्यास किया गया है । जिससे एक
ओर श्रुति कार्कश्य उत्पन्न होता है, दूसरी ओर प्रस्तुत विषय (सूर्य-स्तुति)
के औचित्य की हानि होती है। ३. एक वर्ण की आवृत्ति अधिक नहीं होनी चाहिए । पूर्वावृत्त वर्ण का परित्याग
कर नये वर्ण की आवृत्ति की जानी चाहिए ।
४. वर्णों की आवृत्ति स्वल्पान्तर (परिमित व्यवधान) से करना चाहिए।' वर्णविन्यासककता और अनुणास
कुन्तक द्वारा प्रतिपादित वर्णविन्यासवक्रता के अनेक प्रकार छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास में समाविष्ट हो जाते हैं । यथा - (१) छेकानुपास
संयुक्त या असंयुक्त व्यंजन समूह की एक वार सान्तर या निरन्तर आवृत्ति को छेकानुप्रास कहते हैं । इसे कुन्तक ने निम्नलिखित भेदों में विभाजित किया है :
(क) संयुक्त या असंयुक्त व्यंजनयुगल की एक बार सान्तर आवृत्ति, (ख) संत या असंयुक्त व्यंजन समूह (बहु व्यंजनों) की एक बार सान्तर आवृत्ति,
(ग) संयुक्त या असंयुक्त व्यंजनयुगल की एक बार निरन्तर आवृत्ति, (घ) संयुक्त या असंयुक्त व्यंजन समूह की एक बार निरन्तर आवृत्ति ।
उदाहरण -
आदाय कुलगन्धानपीकुर्वन् पदे पदे अमरान् ।
१. "स्वल्पान्तरास्त्रिधा सोक्ता" वक्रोक्तिजीवित, २/१ __ "स्वल्पान्तराः परिमितव्यवहिता इति सर्वेषानमिसम्बन्धः ।" वही, वृत्ति २/२ २. (क) "छेको व्यंजनसल्यस्य सकृत्साम्यमनेकधा ।" - साहित्यदर्पण, १०/३
(ख) "अनेकस्य व्यंजनस्य सकृदेकवारं सादृश्यं छेकानुप्रासः" | - काव्यप्रकाश, ९/७९ ३. साहित्यदर्पण, १०/३ की वृत्ति