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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
१६९ तात्पर्य यह है कि शान्तरस की अवस्था में अतीन्द्रिय आत्मसुख का अनुभव होता
(३) धनञ्जय आदि विद्वानों का यह मत समीचीन नहीं है कि "शम" की अवस्था में चेष्टाओं का उपशम हो जाने से शान्तरस का अभिनय नहीं हो सकता । "शम" की अभिव्यक्ति लौकिक सुख-दुःख के प्रति विराम के प्रदर्शन मात्र से की जा सकती है । पात्र के अन्तःसंघर्ष को प्रकट करते हुए सत्यप्राप्ति अथवा आत्मज्ञान के प्रति किये गये प्रयत्नों का दिग्दर्शन मात्र ही शान्तरस को उपस्थित कर सकता है ।
__(४) कुछ लोगों का मत है कि शान्तरस सर्वजनसंवेद्य नहीं होता । इसका समाधान यह है कि सभी रस सभी व्यक्तियों के लिये उपयुक्त नहीं होते । शृंगाररस भी सर्वजन संवेध नहीं है, फिर भी उसे रसराज स्वीकार किया गया है । शान्तरस भी सर्वजनसंवेध नहीं है, किन्तु जिनकी मनोदशा वीतरागता की ओर उन्मुख है, उनके द्वारा संवेद्य है, अतः वह. सहृदय संवेध है। शान्तरस स्थायिभावविषयक विवाद
शान्तरस का स्थायिभाव क्या है ? इस विषय में सभी विद्वानों में मतभेद है । कुछ लोग “निर्वेद" को शान्तरस का स्थायिभाव मानते हैं तो कुछ लोग “शम" को । जो लोग "निर्वेद" को शान्तरस का स्थायिभाव मानते हैं, वे इसके समर्थन में निम्न तर्क देते हैं -
(१) निर्वेद दो प्रकार का होता है - दारिद्रयादि से उत्पन्न तथा तत्त्वज्ञानजन्य । तत्वज्ञानजन्य निर्वेद मोक्ष का कारण है, इसलिए वही शान्तरस का स्थायिभाव है।'
(२) भरतमुनि ने स्थायिभावों के बाद जब व्यभिचारिभावों की गणना करायी है तब तैंतीस व्यभिचारी भावों में सर्वप्रथम निर्वेद की गणना की है, इससे भी सिद्ध होता है कि तत्त्वज्ञानजन्य निर्वेद ही शान्तरस का स्थायी भाव है। यदि वह शान्तरस का स्थायिभाव न होता तो अमंगल रूप होने के कारण उसकी सर्वप्रथम गणना न कराते । तात्पर्य यह कि अमंगलरूप होते हुए भी व्यभिचारी भावों में जो उसकी सर्वप्रथम गणना की गई है, उसका कारण यही है कि वह शान्तरस का स्थायिभाव है।
१. अभिनव भारती, पाठ अध्याय, पृ० ६१४