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________________ १६८ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन अभिनय संभव नहीं है । निद्रा और मूर्छा आदि जिसको लोक में चेष्टारहित स्थिति कहा जाता है, उसका भी श्वास-प्रश्वास आदि तथा गिरने या पृथ्वी पर सोने आदि चेष्टाओं द्वारा ही नाटक में प्रदर्शन किया जाता है । इसलिए व्यापार शून्यतारूप "शम" का अभिनय कदापि संभव नहीं है, अतः नाट्य में शान्तरस की सत्ता नहीं मानी जा सकती । शान्तरस विरोधी तकों का बण्डन (१) उपर्युक्त तर्कों का खण्डन अभिनवभारतीकार ने निम्नलिखित तर्क से किया है। वे कहते हैं : "धर्मशास्त्रों में मनुष्य के चार पुरुषार्थ बतलाये गये हैं - धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष । मनुष्य में जैसे कामादि (धर्म, अर्थ, काम) पुरुषार्थों की साधक रत्यादि चित्तवृत्तियाँ होती हैं वैसे ही मोक्षपुरुषार्थ की साधक "शम" चित्तवृत्ति भी होती है । जैसे सहृदय सामाजिकों की रत्यादि चित्तवृत्तियों कवियों और नटों के व्यापार द्वारा आस्वाधयोग्य बना कर रसत्व को प्राप्त करायी जाती हैं, वैसे ही "शम" चित्तवृत्ति भी उनके व्यापार द्वारा रसत्व को क्यों नहीं प्राप्त करायी जा सकती है ? अभिप्राय यह है कि करायी जा सकती है । अतः शान्तरस का अस्तित्व है।' (२) साहित्यदर्पणकार शान्तरस का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं - शान्तरस का स्थायिभावभूत ऐसा "शम" है जो युक्त (ब्रह्मध्यानमग्न) तथा वियुक्त (सिद्ध) अवस्थाओं में विद्यमान रहता है । अतः उसमें व्यभिचारिभावों का परिपोष होता है जिससे वह रसता को प्राप्त होता है। _ शान्तरस में जिस सुखाभाव की चर्चा की गई है वह वैषयिक सुखाभाव है, आत्मोत्य परमसुख का अभाव नहीं, जैसा कि महाभारत के निम्न श्लोक से स्पष्ट है - पर कामसुख लोके वच दिवं महत्सुखम् । तृणावावसुखस्येते नार्हतः पोषी कताम् ॥ विषयभोग से लौकिक-सुख मिलता है और स्वर्ग में रहने से दिव्य-सुख प्राप्त होता है। ये दोनों सुख तृष्णाक्षय से उत्पन्न होने वाले अतीन्द्रिय आत्मसुख के सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं है। १. "अत्रोच्यते-इह तावद् धर्मादित्रितयमिव मोक्षोऽपि पुरुषार्थः शास्त्रेषु समृतीतिहासादिषु च प्राधान्येनोपायतो व्युत्पावत इति सुप्रसिद्धन् । यथा च कामादिषु समुचिताश्वितवृतयो रत्यादिशब्दवाच्याः कविनटव्यापारेण जास्वादयोग्यताप्रारणहारेण तथा विधहदयसंवादवतः सामाजिकान् प्रति रसत्वं शृंगारादितया नीयन्ते तया मोवाभिधानपरमपुरुषाषिता चितवृत्तिः किपिति रसत्वं नानीयते इति वक्तव्यम् ? या चासो तबाभूताब्चित्तवृत्तिः सैवात्र स्थायिभावः ।" - अभिनवभारती, पाठ अध्याय पृ० ६१३
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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