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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन १६७ आनन्दवर्धन तथा अभिनवगुप्त ने स्पष्टरूप से शान्तरस का प्रतिपादन किया बड़ौदा से प्रकाशित "अभिनवभारती" व्याख्या से युक्त भरत नाट्यशास्त्र के द्वितीय संस्करण के सम्पादक श्री रामस्वामी शास्त्री शिरोमणि ने लिखा है कि शान्तरस की स्थापना सबसे पहले भरत नाट्यशास्त्र के टीकाकार उद्भट ने अपने "काव्यालंकार संग्रह " नामक ग्रन्थ में की है । उसके बाद आनन्दवर्धन तथा अभिनवगुप्त आदि ने उसका समर्थन किया है । उद्भट के पहले शान्तरस की कोई सत्ता नहीं मानी जाती थी । भरत नाट्यशास्त्र के छठे अध्याय में भी शान्तरस का वर्णन पाया जाता है, परन्तु उसके विरोध में उक्त सम्पादक महोदय का मत है कि वह प्रक्षिप्त या बाद का बढ़ाया हुआ है । इस अंश को प्रक्षिप्त मानने के लिये उन्होंने दो हेतु दिये हैं । पहिला हेतु तो यह है कि भरत मुनि ने पहिले तो आठ ही रसों का उल्लेख किया है तब बाद में नवम रस का वर्णन उनके ग्रन्थ में नहीं होना चाहिए था, अतः यह अंश प्रक्षिप्त है । उनकी दूसरी उक्ति यह है कि शान्तरस वाला यह प्रकरण " नाट्य शास्त्र" की कुछ पाण्डुलिपियों में पाया जाता है । इसलिये वे उसको प्रक्षिप्त मानते हैं और शान्तरस की सत्ता न माननेवाले पक्ष के समर्थक हैं। प्राचीन आचार्यों में शान्तरस के सबसे प्रबल विरोधी दशरूपककार धनञ्जय एवं उनके टीकाकार अधिक हैं । उन्होंने दशरूपक तथा उसकी टीका दोनों में बड़ी प्रौढ़ता से शान्तरस का खण्डन किया है । शान्तरस की सत्ता के विरोध में जो तर्क दिये जाते हैं, उनमें प्रमुख दो हैं : (१) शान्तरस उस अवस्था का नाम है जहाँ न दुःख का अनुभव होता है, न सुख का, न कोई चिन्ता होती है, न राग और न द्वेष, न कोई इच्छा । समस्त पदार्थों के प्रति समलोष्टाश्मकाञ्चनवत् समभाव का अनुभव होता है। इस अवस्था का अनुभव केवल परमात्म स्वरूप प्राप्तिरूप मोक्षदशा में ही हो सकता है, जिसमें व्यभिचारी आदि भावों का सर्वथा अभाव होता है तब इस अवस्था को रस कैसे माना जा सकता है ?" (२) धनञ्जय एवं धनिक का कथन है कि शान्तरस का अभिनय संभव नहीं है। क्योंकि शान्तरस का स्थायिभाव " शम" है और "शम" उस अवस्था का नाम है जिसमें सभी प्रकार की चेष्टाओं का उपशम (अभाव) हो जाता है । किन्तु चेष्टा के अभाव का १. ननु न यत्र दुःखसुखं न चिन्ता न द्वेषरागौ च काचिदिच्छा । रसः स शान्तः कथितो मुनीन्द्रैः सर्वेषु भावेषु समप्रमाणः ॥ इत्येवं रूपस्य शान्तस्य मोक्षावस्थायामेवात्मस्वरूपापत्तिलक्षणायां प्रादुर्भावात्तत्र सञ्चार्यादीनामभावात् कथं रसत्वमिति ? - साहित्यदर्पण, ३/२४९
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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